कमरतोड़ मंहगाई से कारण आज देश की जनता कराह रही है और सरकारें उस पर राजनीति करने से बाज नहीं आ रहीं हैं। रोजमर्रा की चीजें आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रहीं हैं। चीनी की कीमतें आसमान पर है और कृषि मंत्री की एन सी पी का मुखपत्र जनता को चीनी खाना छोड़ने की सलाह दे रहा है। बेशर्मी की पराकाष्ठा है यह। मुख्यमंत्रियों की बैठक में मँहगाई की समस्या पर सार्थक विचार- विमर्श की बजाय राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की प्रवृत्ति ज्यादा दिखी। अधिकतर मुख्यमंत्रियों ने कोई सार्थक सुझाव न देकर केंद्र सरकार को कटघरे में करने में और चुटकी लेने में ज्यादातर दिलचस्पी दिखाई जैसेकि राज्य सरकार का मंहगाई से कोई वास्ता ही न हो।
राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर परजिम्मेदार पदों बैठे राजनेताओं की यह संवेदनहीनता अत्यंत शर्मनाक है। ऐसा लगता है की बेशर्मी ने हमारे देश के राजनीतिक कल्चर को आच्छादित कर लिया है। प्रधान मंत्री राजनीतिक गणित के कारण कृषि मंत्री को हटा पाने की हिम्मत नहीं रखते। वे केवल आशावादिता में ही जी रहें हैं कि 'बुरा दौर ख़त्म हो गया है ,अब मंहगाई कम होने वाली है। ' पर कब ? इसका स्पष्ट उत्तर उनके भी पास नहीं है।
साठ वर्षों से अधिक की हमारी लोकतान्त्रिक यात्रा का निष्कर्ष आज यही दिखाई दे रहा है कि तंत्र , जन से बहुत दूर ही नहीं वरन उसके प्रति संवेदनहीन होता जा रहा है। नेताओं के पेट मोटे होते जा रहे हैं और गरीब दो जून रोटी को मोहताज होता जा रहा है। गरीबों के प्रति संवेदनशीलता को प्रदर्शित करने यदि कोई लोकतान्त्रिक दल का राजकुमार निकलता भी है तो उसका प्रयास वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा ही लगता है।
सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है कि उसने कई जनोन्मुखी योजनायें लागू की हैं , सूचना का अधिकार उपलब्ध कराया है और गरीबों व दलितों की स्थिति सूधारने के लिये काफी काम किया है । पर मंहगाई का दानव इन सब पर भारी है । जब तक पेट खाली है तब तक सारे स्वतंत्रता व अधिकार बेमानी हैं । बड़ी प्रचलित उक्ति है - ' भूखे भजन न होय गोपाला ,ये लो अपनी कंठी माला '
राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर परजिम्मेदार पदों बैठे राजनेताओं की यह संवेदनहीनता अत्यंत शर्मनाक है। ऐसा लगता है की बेशर्मी ने हमारे देश के राजनीतिक कल्चर को आच्छादित कर लिया है। प्रधान मंत्री राजनीतिक गणित के कारण कृषि मंत्री को हटा पाने की हिम्मत नहीं रखते। वे केवल आशावादिता में ही जी रहें हैं कि 'बुरा दौर ख़त्म हो गया है ,अब मंहगाई कम होने वाली है। ' पर कब ? इसका स्पष्ट उत्तर उनके भी पास नहीं है।
साठ वर्षों से अधिक की हमारी लोकतान्त्रिक यात्रा का निष्कर्ष आज यही दिखाई दे रहा है कि तंत्र , जन से बहुत दूर ही नहीं वरन उसके प्रति संवेदनहीन होता जा रहा है। नेताओं के पेट मोटे होते जा रहे हैं और गरीब दो जून रोटी को मोहताज होता जा रहा है। गरीबों के प्रति संवेदनशीलता को प्रदर्शित करने यदि कोई लोकतान्त्रिक दल का राजकुमार निकलता भी है तो उसका प्रयास वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा ही लगता है।
सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है कि उसने कई जनोन्मुखी योजनायें लागू की हैं , सूचना का अधिकार उपलब्ध कराया है और गरीबों व दलितों की स्थिति सूधारने के लिये काफी काम किया है । पर मंहगाई का दानव इन सब पर भारी है । जब तक पेट खाली है तब तक सारे स्वतंत्रता व अधिकार बेमानी हैं । बड़ी प्रचलित उक्ति है - ' भूखे भजन न होय गोपाला ,ये लो अपनी कंठी माला '
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