12 अप्रैल 2009

दीपक चौरसिया की काव्य रचनाएं


1

उनका अज़ीज़ बन के रहा, जब तक हवाओं सा था मैं,
सबको नश्तर सा चुभा, जो तूफां के माफिक हो गया.
मुश्किलें मुश्किल न थीं जब तक शराबी मैं रहा,
नीलाम मैं उस दिन हुआ जिस दिन से आशिक हो गया.

2

कितना यहाँ किससे मिला ये जानना जायज़ नहीं,
ये जानना कुछ कम नहीं की हर तजुर्बे से मिला.
उनसे जब भी मैं मिला तो एक अजूबे की तरह,
दोस्त बन- बन के कभी, कभी रकीब बन के मिला.

3

तुमको खोने का वो डर था, जिससे मैं डरता रहा,
मेरे डर को देख तुमने कायर ही बस समझा मुझे.
जब भी दिल के हाल को मैंने लफ्जों में कहा,
तुमने समझा तो मगर शायर ही बस समझा मुझे.

4

अब भी दिल में है तू, नज़रों से भले दूर हुआ,
वक़्त पे खामोश रहा, ये मुझसे एक कसूर हुआ.
कुछ असर-ए-हालत था, कुछ खताएं मेरी,
जो मेरे मरहम से ज़ख्म तेरा नासूर हुआ.
तेरी उल्फत के काबिल मैं कभी था ही नहीं,
न जाने दिल मेरा क्यों, फिर ये मजबूर हुआ.
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दीपक चौरसिया 'मशाल'
स्कूल ऑफ़ फार्मेसी
९७, लिस्बर्न रोडबेलफास्ट
(युनाईटेड किंगडम) BT9 7BL

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