29 अप्रैल 2009

प्रवीण सक्सेना ‘उजाला’ का आलेख - सूफी काव्य में प्रेम तत्त्व

प्रेमाख्यान काव्य भारतीय साहित्य में अति प्राचीन है। प्रेम की वज्रधारा मानव हृदय में चिरकाल से प्रवाहित होती आ रही है। जीवन के विविध सोपानों को आख्यायित करने वाली यह स्रोतस्विनी सम्पूर्ण भारतीय वाग्ड्0मय को सरसता से सरोकार किये हुये है। मानव जीवन में उत्थान-पतन, उन्नति-अवन्नति, पाप-पुण्य की विविध दशाओं में प्रेम की सहजता, निरंतर बनी रही है। भारतीय ऋषियों, दृष्टाओं के जीवन की कहानियों में भी यत्र-तत्र प्रेम की मधुर ध्वनि निनादित हुयी है। यही कारण है कि सूफी काव्य अपना पृथक स्थान बनाये हुए है। यों तो सूफी काव्य प्रेम काव्य के रूप में प्रतिष्ठापित है किन्तु प्रेम के भी उन्होंने तीन रूप माने है। वह तीन स्थितियों में प्रस्फुटित होता है- 1. चित्र दर्शन, 2. स्वप्न दर्शन तथा 3. साक्षात दर्शन। प्रेम जब इन तीनों में से किसी एक दर्शन से प्रभावित होता है तो व्यक्ति अपने प्रिय या प्रियतम से मिलने के लिए विह्वल हो उठता है और यही उसके प्रेम का प्रथम कदम, प्रयास बनती है। वह नगर-नगर, दर-ब-दर अपने प्रेमी प्रियतम के लिए भटकता है।
‘‘सूफी चिन्तकों ने ब्रह्म और जगत के सम्बन्ध को समुद्र और लहर जैसा बताया है। ज्ञान दृष्टि से देखने वालों को केवल समुद्र दिखायी देता है। ब्रह्म रूपी विषाल समुद्र में सम्पूर्ण सृष्टि बालू के कण के समान छिपी रहती है।’’1 प्रसिद्ध सूफी संत और कवि अब्दुल कुद्दूस गंगोही ने ‘‘ब्रह्म और जीव के सम्बन्ध को फूल उसकी गंध अथवा पानी और उसके बुलबुले जैसा कहा हे।’’2 किन्तु हमारे भारतीय ऋषियों-मुनियों ने इनसे एक अलग रूप में दूसरे उपमान माने है। ‘‘भारतीय ऋसियों के प्रसिद्ध उपमान मृग की नाभि में स्थित कस्तूरी के द्वारा अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार मृग की नाभि में कस्तूरी रहती है उसी प्रकार मनुष्य के षरीर में परमात्मा रहता है। मृग अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी को नहीं जानता और व्याघ उसकी नाभि काटकर कस्तूरी निकाल लेता है। उसी प्रकार जीवन अपने घट में निवास करने वाले परमात्मा को नहीं समझ पाता जब कस्तूरी के समान ब्रह्म घट से निकल जाता है तब यह षरीर अर्थहीन हो जाता है।’’3 मध्य युगीन सूफी प्रेमाख्यान भारतीय एवं इस्लामी, इन दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों के सम्मिलित रूप हैं। भारतीय समाज में प्रचलित कथाओं के अन्तर्गत सूफी सिद्धान्तों एवं सूफी साधना का समावेष सूफी काव्यों की विशेष सफलता एवं विलक्षण विशेषता कही जा सकती है।’’4 सूफी लोग परमतत्त्व को निराकार एवं निर्गुण ब्रह्म की भांति मानते है। सूफी लोग इष्के हकीकी के लिए इष्के मजाजी को आवष्यक मानते है और लौकिक प्रेम (इष्के मजाजी) को क्रमषः परिष्कृत करते जाते है और उसका उन्नयन करके अलौकिक प्रेम में उसका पर्यवसान दिखाते हैं। सूफी काव्य के कवियों ने परम्परानुसार सभीष्ट की पूर्ति के लिए प्रतीकात्मकता और सांकेतिकता का आश्रय ग्रहण किया है। सूफी कवियों ने प्रेम के उच्च आदर्ष के अनुसरण की प्रेरणा भी प्रदान की है-
ज्ञान ध्यान मद्विम सबै, जप जप सजम नेम।
मान सो उत्तम जगत जन, जो पतिया है प्रेम।’’5
x x x
कै अस्तुति जो बहुत मनावा। सबद अकूट मंडप महं आवा।
मानुस प्रेम भएउ वैकुंठी। नाहि तकाह छार एक मूंठी।
प्रेमहि माहं बिरह औ रसा। मैन के घर मधु अंब्रित बसा।’’6
सूफी दर्षन का मूलाधार ही प्रेम तत्त्व है। प्रेम अपने आप में एक अलौकिक तत्त्व है जिसे परिभाषाओं में बांधने का प्रत्येक मानवीय प्रयास असफल रहा है। ‘‘प्रेम वासना नहीं है और न यह स्वयं को आबद्ध करने का ही बन्धन है, वरन् यह हृदय की वह परिष्कृत, उदात्त और अनिवर्चनीय भावना है जो मन की षुद्धि करती है।’’7
प्रथमहि आदि प्रेम परविस्टी। तौ पाछे भइ सकल सिरिस्टी।
उतपति सिस्टि प्रेम सो आई। सिस्टि रूप भर पेम सवाई।
जगत जनमि जीवन फल ताही। पेम पीर उपजी जिउ जाही।
जेहि जिअं प्रेम न आई समाना। सहज भेद तेहं किछू न जाना।’’8
प्रेम का पुजारी मनोहर योगी का वेष धारण कैसे कर लेता है इस एक उदाहरण दृस्टव्य है।
प्रेम पंथ जेइं सुधि-सुधि खोई। टुहुं जग किछु समुझहि नहिं सोई।
कठिन बिरह दुख गा न संभारी। भांगेउ खप्पर दंड अधारी।
चक्र माथे मुख भसम चढ़ावा। सवन फटिक मुन्द्रा पहिरावा।’’9
सूफी साधक और कवि इब्नुल फरीद ने साधना के क्षेत्र में तीन तरह की अनुभूतियों का जिक्र किया है- ‘‘‘प्राकृत’(नार्मल), अ-प्राकृत (एब-नार्मल) और अति-प्राकृत (सुपर नार्मल)। साधारण व्यक्तियों के बहुविध और परिवर्तनशील अनुभव को ‘प्राकृत’ कहा जा सकता है। इसमें साधक नाना प्रकार की चिन्ताओं और अनुभूतियों का शिकार होता है। ‘अ-प्राकृत’ अनुभूति वह है जिसमें ‘प्राकृत’ अनुभूतियों का अवसान और भावोंल्लास का अधिपत्य हो जाता है और ‘अति-प्राकृत’ अनुभूति इसके बाद की चीज हैं साधक को परमात्मा के साथ ‘एकत्व’ का बोध होता है।’’10 सूफी कवि संसार का उपभोग करते हुए ‘धरम’ करने और सृष्टि के रचियता का चिन्तन करने का उपदेश देते हुए कहता है-
‘‘अब्रिथ होइहि सब प्रिथिमी रहिहहिं, परलै और संघार।
पाँच देवस मन बूझि के किछु उटबहु उपकार।’’11
प्रेम में प्रेमी का शनैः शनैः मरण होता है कभी प्रेम-पिपासा, कभी विरहाग्नि में। प्रेमी जो रस की आशा-पिपासा में उसके विद्यमान होते हुए भी मर रहा है-
‘‘तीरे रस का आहि पियासा। निससत रहइ लेइ मरि सासा’’12
मानवीय प्रेम को कवि कुछ इस तरह संज्ञापित करता है-
‘‘सत’ के साथ जो आएउं ‘सत’ सइं लेइहि छड़ाइ एहि ठाउं।
सो ‘सत’ आहि साथ बढ़ मोरें जपत तेही कर नाउं’’13
इस प्रकार सूफी कवियों ने अपने काव्य में प्रेम तत्त्व को गुम्फित और निरूपित किया है।

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सन्दर्भ ग्रन्थ
1. सूफी मत, कन्हैयलाल, पृ0 79
2. तदैव, पृ0 80
3. तदैव, पृ0 77
4. चित्रावली, टीका डा0 राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी, रीगल बुक डिपो, दिल्ली, पृ0 35
5. तदैव, पृ0 36
6. चांदायन, स0 माताप्रसाद गुप्त, पृ0 44
7. मधुमालती, टीका, डा0 सुरेश अग्रवाल, पृ0 19
8. तदैव, पृ0 20
9. तदैव, पृ0 27
10. सूफीकत साधना और साहित्य, रामपूजन तिवारी, पृ0 295
11. मृगावती, कुतुबन, स0 माताप्रसाद गुप्त, पृ0 363
12. चांदायन, दाऊद, स0 माताप्रसाद गुप्त, पृ0 170
13. मृगावती, कुतुबन, स0 माताप्रसाद गुप्त, 143

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प्रवीण सक्सेना ‘उजाला’
उरई (जालौन) उ0प्र0
मोबाइल – 9839926468

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