हमारा भारत अन्तर्विरोधों का देश है! भारतीय समाज को यहाँ कई खण्डों में बाँटकर प्राचीन काल से देखा गया है! यहाँ पर्व, त्योहारों एवं नामकरण में भेद होने के साथ ही साथ जातियों में समाज का बंटवारा है ही इसके साथ ही पत्थर, देवी-देवता, पेड़-पौधे, पशु पक्षियों, रंगों धातुओं एवं लकड़ी सभी क्षेत्रों में बंटवारा हैं ; इसमें दो राय नहीं है कि मानव प्रारम्भ से ही अपने परिवेश से प्रभावित होता रहा है और बिना वैज्ञानिक तथ्यों के विश्लेषण, सत्य और असत्य का ख्याल न रखकर कई बार मूक बन समाज के सामने समर्पण कर देता है! मानव की प्रवृत्ति है कि वह जो सुनता है उसे ही परम्परा में चले आ रहे रिवाज के अनुसार सत्य मान लेता है। पूर्वजों से अपनी जातिगति रूढ़ियांे को उत्तराधिकार के रूप में मनुष्य ने जो प्राप्त किया उन्हें ही पक्का करके चलता रहता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जाति के विघटनकारी और घातक रोगाणुओं को अनावश्यक रूप से प्रवेश कराने का परिणाम हमारे समक्ष विद्यमान है कि हम अपने ही समाज में रहने वाले व्यक्तियों , एक दूसरे को कोसते रहते हैं और अपने से भिन्न जाति के व्यक्ति को शत्रु समझने लगते हैं।
विल्सन ने बड़े विस्तार से एक स्थान पर लिखा है कि किस हद तक जातियों के नियम उसके हर व्यक्ति पर लागू होते हैं। आपने स्पष्ट किया है कि ‘‘जाति किसी मनुष्य के पैदा होने पर उसकी मान्यता, स्वीकृति, उत्सव और धार्मिक संस्कारा की दिशा का निर्देश कर देती है। वह उसकी शैशवावस्था, विद्यार्थी और ग्रहस्थ जीपन में उसके दुग्धपान, आचमन, जल-ग्रहण, भोजन और मलमूत्र त्याग, धोना, सफाई, प्रक्षालन, स्नान, आलेपन और वस्त्राभूषण ग्रहण, उठने-बैठने, झुकने, चलने, मिलने-जुलने, यात्रा करने, बोलने, पठन-पाठन, श्रवण और ध्यान, गायन, कार्य सम्पादन, खेल-कूद और लड़ने के तरीके निश्चित करती हैं! उसके धार्मिक और सामाजिक अधिकारों, विशेषाधिकारों, व्यवसायों अध्ययन, अध्यापन, कर्तव्यों और आचार-विचार, दैवी मान्यता, संस्कारों, ऋषियों, पापों और अतिक्रमणों, परस्पर व्यवहार, निषेद्यों और बहिष्कार, अशौच, शुद्धि, जुर्माने, कैद, अंग-भंग, देश-निकाला और मृत्युदण्ड के अपने विधि विधान है। यह हमें बतलाती है कि क्या करने से उसकी दृष्टि में पाप लगता है, पाप बढ़ता है, पाप दूर होता है और क्या करने से पुण्य घटता और बढ़ता है! जति उत्तराधिकार, सम्पत्ति के हस्तांतरण, कब्जा और सौदे, लाभ-हानि आदि सबके बारे में बतलाती है। यह मृत्यु दफन, शवदाह, स्मारक-निर्माण, सहायता, मृत्यु के बाद अनिष्ट आदि के बारें में भी बतलाती हैं। संक्षेप में यह मनुष्य के सभी सम्बन्धों और जीवन की सभी घटनाओं और जीपन से पूर्व और उसके बाद के सभी मामलों में हस्तक्षेप करती है।’’1 (भारतीय लाकोक्तियों में जातीय द्वेष-सं0 एस0 एस0 गौतम, गौतम बुक सेंटर-सी0-263 ए0 चन्दन सदन गली न0 1, हरदेवपुरी-शाहदरा, दिल्ली-110093, संस्करण 2007)।
जब बात साहित्य की होती है तब ऐसे समय में यह कहा जाता है कि साहित्य वह होता है जो सबका हित करे अर्थात् सबका हित हो वही साहित्य है। लेकिन हमारे यहाँ के साहित्यिक लोगों ने भारतीय समाज को वर्णो में बंटें होने की दूरी को कम नहीं किया अपितु समाज में फैले लोक साहित्य में प्रचलित कहावतों/लोकोक्तियों को संग्रह कर जाति-भेद को और भी बढावा दिया जो एक हथियार के रूप में लोग प्रयोग कर रहे हैं जिसके कारण समाज में घृणा, वैमनस्य और ईष्र्या ही नहीं बढ़ रहा है बल्कि भाई-चारा एवं सौहार्दं का सपना एक यूटोपियो साबित हो रहा है।
किसी राष्ट्र के इतिहास, रीति-रिवाज, धारणा, विश्वास और जीवन पद्धति का ज्ञान निश्चित तौर पर वहाँ की कहावतों से होता है इसी परिप्रेक्ष्य में लार्ड बेकन की टिप्पणी अपना विशेष महत्व रखती है कि ‘‘किसी भी राष्ट्र की प्रतिभा और स्वभाव आदि का दर्शन उसकी कहावतों से होता है परन्तु हमारे इन सभी आचारों, विचारों और व्यवहारों पर जाति ही हावी है अन्य बातों को तवज्जो ही नहीं मिली! जबकि एक बात सभी भली प्रकार जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव व प्रकृति अलग-अलग है फिर एक अवगुण को पूरी जाति पर कैसे लागू किया जा सकता है। वास्तव में देखा जाये तो ये कहावतें एक के लिए व्यंग्य हैं तो दूसरे को घायल करने का कार्य करती हैं चूंकि ये आलोचनात्मक पृष्ठभूमि में तैयार की गयी होती हैं। इसलिए इन कहावतों का क्षेत्र सीमित होता है, इनका आधार लोकानुभव नहीं बल्कि किसी जाति विशेष को श्रेष्ठ या निकृष्ठ घोषित करना होता है। जिन जातियों से अधिक घृणा होती है उनके विरूद्ध उतनी ही घटिया से घटिया कहावतों का उपयोग किया गया है।’’2 (वही.......पृष्ठ 10-11)। भारतीय लोकोक्तियों में विशेष रूप से निम्न जातियों, महिलाओं व कमजोर तबकों पर फिकरे अधिक कसे गये हैं; इन कहावतो में इन वर्गों के प्रति सार्थक पक्ष बहुत कम पाये गये हैं। इनके प्रति भौड़ें, हँसी मजाक से लेकर चरित्र हनन तक किया गया और उनको नीचा ही दिखाया गया। दूसरी विशेषता इन कहावतों में यह पायी गई कि कोई भी जाति दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं मानती शायद यही कारण है कि घटिया से घटिया कहावतों का सृजन एवं विकास हुआ।
अभी भारत का अधिकांश भाग गाँवों में निवास(2/3) करता है इसमें सभी जातियों, ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, अहीर, तेली, धोबी, बढ़ई, सुनार, कुम्हार, चमार, दुसाध आदि रहते हैं। गांव के लोग परम्परावादी होते है, परम्परावादी जीवन में परिवर्तन करना बहुत ही कठिन कार्य होता है हांलाकि धनी एवं निम्न वर्ग के खान-पान और रहन-सहन में ज्यादा अन्तर नहीं होता है परन्तु कहावतें ऐसी आसढ़ हो चुकी हैं कि एक दूसरे के दोष ढंढ़ने की प्रवृत्ति के कारण, दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कहावतें बना दी गईं हैं। जो एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण होती हैं। भाषिक शिष्टता एवं संकीर्ण सोच के कुछ निम्न उदाहरण कहावतों में देखे जा सकते हैं।
भारत में यादव पर्याप्त संख्या में हैं। ये लोग ग्वाल, राय, जाधव और यादव के नाम से विभिन्न प्रांतों एवं आंचलों में जाने लाते हैं। अधिकतर लोगों का पेशा कृषि एवं पशुपालन होने के कारण ग्रामीण है जिसके कारण ये छल-कपट एवं सच्चाई के कारण सीधे-साधे होते हैं। यही सीधा एवं भोलापन आम समाज के लिए इनकी मूर्खता का कारण बन जाता है। इसलिए यह कहा जाता है कि अहीर सदा नावालिग होता है- मगही में कहावत है कि-‘गोआर साठबरिस में बालिक होवे हैं।’ लोरिक अहीरों की जातीय लोकगाथा है। और लोरिक के स्मरण से अहीर लोग ओज और उत्साह का अनुभव करते हैं। इसलिए यह कहावत प्रचलित है कि अहीर कितनी भी पुराण पढ़ लें परन्तु वह लोरिक गाना नहीं छोड़ता - केतनो अहीर पढ़े पुरान, लोरिक छोड़ न गावे गान। अक्सर यह कहा जाता है कि अहीर(यादव) बुद्धू कम अक्ल होते हैं अतः इनसे संवाद करना निरर्थक होता है। जब कोई और व्यक्ति बातचीत के लिए न मिले और बात करनी ही पड़े तो अहीर से बातें करें। भोजन में सेतुआ और खिचड़ी का वही स्थान है जो अहीर का मनुष्य में है अर्थात् जब कुछ भी खाने को न मिलें तो सतुआ या खिचड़ी ही खाई जाए - कोअ न मिलै तो अहिर ते बतलाय, कुछो न मिलै तो सेतुआ(खिचड़ी) खाय।
उसी तरह से जुलाहा जाति पर अनेक कहावते प्रचलित है। जुलाहे बड़े सरल स्वभाव के कम पढ़े लिखे होते हैं। इनके सरल व्यवहार के कारण ही इन्हें लोकोक्तिया और लोक-कथाओं में मूर्खता के रूप में प्रदर्शित किया गया है। आठ जुलाहों के मध्य हुक्कों की सख्या नौ है, फिर भी वे हुक्के के लिए थुक्कम-थुक्का करते रहते हैं यह उनमें आपस में मेल न होना ही दर्शाता है - आठ जोलाहा नौ हुक्का, तवनों पर थुक्कम-थुक्का। कभी-कभी जुलाहा को गधे से भी मूर्ख समझा जाता है अर्थात् गधे से भी ज्यादा मूर्ख या सीधा साधा जुलाहा होता है? नही तो गधे के खेत खाने पर वह क्यों मार खाये? - खेतु खाय गदहा, मारू खाय जुलहवा। इसी तरह बेवकूफ के अन्न और जुलाहे के धन का कोई मूल्य नहीं होता। कारण वे उसका उचित उपयोग नहीं जानते - बागर अन्ने ,जोलहा धन्ने।
इसी तरह से भंगी बाल्मीकि अर्थात् चुहड़े जाति पर लोकोक्तियां प्रसिद्ध है-
भंगी की जात क्या, झूठे के बात क्या!
काम करो चुहड़े की तरह, आराम करो राजा की तरह।
चुहड़े से अगर कोई चीज लेनी है तो कुत्ते के गले पड़ गया समझो अर्थात् चुहड़े से लेना, कुत्ते के गले पड़ना।
गड़रिया(पाल) एक पशुपालक जाति होती है ये लोग भेड़ बकरी पालकर अपना जीवन यापन करते हैं। इनके बारे में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यह जाति विश्वास योग्य नहीं होती है - गड़रिया भालू का विश्वास न करें! एक तो गड़ेरन, दूसरे लहसुन खाये। अर्थात् भेड़ों के साथ अधिकांश रहने के कारण गड़ेरिया गन्दा रहता है ऊपर से लहसुन खाने पर उसकी दुर्गन्ध और बढ़ जाती है।
चमार अछूत जाति में सबसे अधिक सख्या में होते हैं। इस जाति में कबीर, रैदास एवं अनेक महापुरूष हुए हैं जो अपने तर्क एवं बुद्धि के द्वारा इतिहास में आज भी अमर बने हुए हैं। हिन्दी क्षेत्र में चमार के सम्बन्ध में उसकी बदनसीबी को कोसते हुए कहा गया है कि चमार के सिर अपना ही जूता पड़ता है - चमार के सिर चमार का जूता। कहावतों के अनुसार चमार अपनी बेटी का नाम अच्छा भी नहीं रख सकते हैं - चमार के बेटी नाम रज रनिया अर्थात् चमार के छोरी नाम चांदनी। परम्परावादी समाज में एक कहावत बहुत ही चर्चित है कि घर में बैठकर चने चबाएगें, भूखे रहेगे परन्तु चमार के यहाँ नौकरी नहीं करेगें - बैठेंगे चैखट पर चबाएंगें चने, चाकरी न करेंगे न चमार की।
इसी तरह से कुछ सामूहिक जातियों पर कहावतें प्रसिद्ध है कि अहीर, गड़ेरिया और पासी ये तीनों जातियां सत्यानाशी होती है - ‘अहीर, गड़ेरिया और पासी ,ये तीनों जातियाँ सत्यानाशी।’ यह भी प्रचलित है कि छोटी जात माण दी लातुन, बड़ी जात माण दी बातुन। अर्थात् छोटी जाति लातों(पीटने या दलन) से मानती हैं और बड़ी जाति बातों से मान जाती हैं! सभी जातियों के बारे में कहा गया है कि - जात सुभाव न छोड़ियों अन्त करहली तींत, जिस जाति का जो स्वभाव होता है, वह नहीं छूटता। करेले की तरकारी कड़वी ही होगी! चाहे जैसे भी बनाई जाए।
इक्कींसवी सदी के इस बुद्धि और तर्कवादी दौर में जब हम अन्तरिक्ष में बैठकर सैरगाह कर रहे हैं ऐसे में रूढ़िगत, जातिगत और अन्धविश्वास फैलाने वाली कहावतों को हमें भूलना होगा क्योंकि यह कहावतें मानव विकास की गतिशीलता को अवरूद्ध करने के साथ-साथ आपसी भाई-चारा एवं सौहार्द की भावना में विषमता पैदा करती है! हालांकि तथ्य यह है कि कहावत एक धारणा हो सकती है, चिर सत्य नहीं क्याकि इनके सत्य होने की कोर्ठ युक्तिसंगतता या वैज्ञानिकता नहीं होती। वैश्वीकरण के युग में आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्त लोक साहित्य को यथावत एकत्र किया जाए और वैज्ञानिक और तर्कवादी दृष्टि से इसकी व्याख्या की जाए जिससे किसी की भावना को ठेस न पहॅचे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-(1), (2). हिन्दूस्तानी कहावत कोश: सं0 एस0 डब्ल्यू0 फालन,
ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ नार्थ एण्ड अवध-विलियम क्रूक।
भारत में जातियां-जे0एच0हट्टन,
कास्ट एण्ड रेस इन इंडियाः जी0 एस0 धुर्ये,
ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ इण्डिया: एम0 ए0 शैरिंग।
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन संथान, राष्ट्रपति निवास, शिमला (हिमाचल प्रदेश)
1 टिप्पणी:
ahir gaderiya our pasi ye tino satyanashi main esse sehmat nahi hoon lekhak shayad khud vishwash ke kabil nahi hai
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