03 नवंबर 2009

रिश्तों की खूशबू













कविता
- सुधा भार्गव

रिश्तों की खुशबू



रिश्तों की खुशबू
जब दीवारों से टकराए
कदमों की आहट
धूल के आगोश में
सो जाए
तब लोरी गाकर
उनको जगा देना
जो
जाते -जाते
रुक -रुक कर
बढ़ते बढ़ते
देख रहे हैं हमको
मुड़ -मुड़ कर ।


नील गगन में
मेघा छंटते ही
किरणों की आँख -मिचौनी में
याद उन्हीं को कर लेना
जो अपनी खुशियाँ
विराट आकाश को सौंप गए ।


नजरों के अंदाज निराले
कौन- किसे- कब- कैसे लेता है
तीरों का विष बुझ -बुझ जाए
तो आवाज उन्हीं को दे देना
जो बिजली की कड़क बनकर
हर- जीत में जीते रहे
जाते -जाते
गलबहियां डाल
हार गले का बनते गये।

* * *

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