21 नवंबर 2009

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - गहन जीवन अनुभवों के स्याह यथार्थ से रूबरू होता वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य

गहन जीवन अनुभवों के स्याह यथार्थ से रूबरू होता वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य

-----------------------------------

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन
सस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला (हिमाचल प्रदेश)

----------------------------------------


जीवन सम्भावनाओं का दूसरा नाम है और मनुष्य है अनगिनत सम्भावनाओं की बैसाखियों के सहारे थम-थम कर चलने वाला हिम्मतवर सैलानी। जन्म के प्रारम्भिक क्षण से लेकर मृत्यु के अन्तिम क्षण तक की सारी यात्रा अनेक रूचियों, भावों और प्रतिक्रियाओं की एक ऐसी परिणति है जिसकी गहराइयों में सब कुछ ऐसे समा जाता है मानो जन्म मिला ही इसलिये है कि उसे अपने लिये सब कुछ समेटकर उसी में विला जाना है। औद्योगीकरण, नगरीकरण और वैज्ञानिक अन्वेषणों के पाश्र्व में खड़ा जीवन बाहर से ही नहीं, भीतर से भी बदला है। आजादी ने हमें जितना दिया है, उससे अधिक हम से ले भी लिया है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘स्वतंत्रता और संस्कृति एक अल्पसंख्यक वर्ग-विशेष को ही मिली है।’ सामान्य मनुष्य तो अभी भी आजादी को टोह रहा है। आजादी राष्ट्रीय स्तर पर जितनी अहम उपलब्धियाँ लेकर आई है, वैयक्तिक स्तर पर उतना और वैसा कुछ भी नहीं हस्तगत हुआ है। ‘‘व्यक्ति की मनोव्यथा बढ़ी है क्योंकि महानगरों में भीड़ बढ़ी है। मनुष्य पहले से अधिक अकेला हुआ है क्योंकि उसे अस्तित्व नहीं मिला है। उसकी ऊब दुगुनी हुई है क्योंकि मानवीय सम्बन्ध बिखर गये हैं। मनुष्य बेरोजगार होता गया है क्योंकि गाँव और नगर पीढ़ियाँ उगल रहे हैं। निराशा का रंग दिन-प्रतिदिन गाढ़ा होता जा रहा है क्योंकि मनुष्य की स्थिति अनपहचान सी होती जा रही है।’’ महानगरों में भीड़ का दबाव बढ़ा है तो उसी अनुपात में जीवन यांत्रिक और एक रस होता जा रहा है। नतीजा यह है कि छोटे नगरों में जीवन के अभाव और विषम परिस्थितियाँ इतनी अधिक तेजी से बढ़ रही हैं कि व्यक्ति के मन में ‘एलियनेशन’ और ‘बोरडम’ की भावना ने डेरा सा डाल लिया है।

उपयुक्त साधनों का अभाव, जीवन स्तर में उत्पन्न बाधाएँ, अव्यवस्था व अनुपयोगी शिक्षा, बेकारी, जनसंख्या की बढ़ोत्तरी, वैज्ञानिक सुविधाओं का अधकचरापन और बीमारी, गन्दगी व भुखमरी के कारण देश का आम आदमी पीड़ित है। उसका रक्तचाप या तो ऊँचा है, या काफी नीचा है। वह ‘नार्मल’ नहीं रह गया है। युवक-युवतियों को अपनी समस्याएँ हैं। अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध, उन्मुक्त प्रेम, समलैंगिक विवाह, नशीले पदार्थों का सेवन, तलाक, हड़ताल, भू्रण हत्या और नंगे-अधनंगे शरीरों का नृत्य आदि जीवन को जिस हवा के साथ बहाये जा रहा है वहाँ ठहरकर सोचने का अवकाश ही किसको है ? नयी पीढ़ी समाज की सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ रही है। लीक से हटकर अपने अनुसार लीक बना रही है। वह ‘वाइफ स्वैपिंग’ के खेल खेलती है। फैशन का नया दौर सामने से गुजर रहा है। ‘टापलेस’ और ‘मिनी स्कर्टस’ का फैशन जोरों पर है। फैशन का बाजार गर्म है। एक तरह का डिजाइन आ नहीं पाता कि दूसरा आकर उसे पुराने खाते में धकेल देता है। हिप्पी व वीटनिक संस्कृति ने देश के महानगरों का जीवन क्रम ही बदल दिया है। वर्तमान जीवन में कालेजों और विश्वविद्यालयों का जीवन भी अनाकर्षक अव्यवस्थित और असन्तोषपूर्ण होता जा रहा है। युवा बुद्धिजीवियों के सामने भविष्य का रूप स्पष्ट नहीं है और आज की नारकीय जिन्दगी की धकापेल में कर्तव्य का ज्ञान ही हवा हो गया है। अतः विगत वर्षों में हमारा जीवन जितना बदला है, उसमें जो अव्यवस्था, दरार और बिखराव आया है, उतना पिछले सैकड़ों वर्षों में भी नहीं आ पाया था। मध्यवर्गीय व्यक्ति एक ओर तो पुराने संस्कारों की जकड़न से बाहर आना चाहता है और दूसरी ओर ‘टेबूज’ व रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ डालने पर आमादा है, किन्तु करे क्या ? उसके हाथों की ताकत गायब है। वह आधुनिक विदेह हो गया है। उसकी संकल्पी मनोवृत्ति नीचे दब गई है। अतः विवश है, अभिशप्त जीवन जी रहा है। इस विवशता ने उसके मानस में कुंठा, एकाकीपन, अजनबीपन, घुटन, निरूद्देश्यता, नपुंशक आक्रोश और अकेलेपन के बोध को गहरा दिया है। इस स्थिति से केवल पुरूष गुजर रहा हो ऐसी बात नहीं है, स्त्रियाँ भी इसी स्थिति और परिवेश में जी रही हैं। उनका शरीर रीतिकालीन नायकों के द्वारा तो उन्मथित ही हुआ था। आज तो वह बार-बार नापा जा रहा है। वासना के फीते के सामने वह छोटा पड़ गया है। अंग-प्रत्यंग पर वासना के नीले निशान हैं और उसकी परिणति भू्रण हत्या, एबार्शन और भोग की दीवारों से सिर पटकने में ही रह गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक परिवेश का मानचित्र काफी भयावह त्रासद और घिनौना है। उसमें समस्याओं के पहाड़ हैं, अतृप्तियों व विक्षुब्ध मनः स्थितियों की सरिताएँ हैं, अकेली शैलमालाओं और समूचे मानचित्र में न कोई रंग है, न रौनक। वह विकृत, हाशियाहीन, सीमाहीन और लिजलिजा सा हो गया है। इतना ही नहीं उसमें अंकित प्रत्येक नगर अजनबीपन का भार लिये अपनी जगह पर खड़ा भर है। यों उसके आसपास, छोटे बड़े नगरों की भीड़ है, उसका दबाव है, परन्तु फिर भी वह अकेला है। ऐसे परिवेश में लिखा गया आधुनिक साहित्य इससे अलग कैसे हो सकता था ? नहीं न। अतः उपरिसंकेतित परिवेश से प्रभावित साहित्य का रूप रंग भी तदनुकूल ही है।

समूची मानवता, मानवीय सम्बन्धों और मूल्यों का अपने ढंग से पुनरूवेषण करती है, अपने लिये एक मार्ग चुनती है, उसे केवल उसकी जन्म विवरणिका के माध्यम से कैसे समझा जा सकता है। उसकी पहचान उसकी व्यक्तिगत रूचियों, आदतों और प्रतिक्रियाओं से तो होती ही है उसे उसके परिवेश और सृजन के सहारे से भी समझा जा सकता है। व्यक्ति वह नहीं है जो वह बाहर से दिखता है, अपितु असली व्यक्ति वह है जो आदमीनुमा शक्ल का खोल ओढ़कर अपने भीतर एक आदमी को लिये चलता है। यह तथ्य सामान्य व्यक्ति से लेकर कलाकार तक पर लागू होता है। आधुनिक जीवन की विसंगतियाँ तो इस तथ्य को और भी प्रमाणित कर देती हैं। मनुष्य लाख कोशिश करे, परन्तु वह आन्तरिक संवेदना को छुए बिना न तो जीवन की विचित्रताओं से परिचित हो सकता है और न उसके मूल में कार्य कर रही शक्तियों से।

आज का आदमी अपने आसपास के अनेक सवालों से टकराता, टूटता और निर्वासित हो रहा है। क्योंकि मनुष्य वैज्ञानिक उपलब्धियों को अपने जीवन में जाने-अनजाने स्वीकार कर रहा है और वैज्ञानिक विचारधारा ही आधुनिकता की धारणा बन गई है। अतः आधुनिकता ने वार्तालाप के दायरे को नितांत सीमित और संकुचित कर दिया है। व्यक्ति अकेलेपन से निकलने और परिवेश से जुड़ने के लिये छटपटा रहा है। वह जीने के लिये नये सम्बन्धों और नयी मान्यताओं की तलाश करता है ताकि अपनी खोई हुई दिशा को प्राप्त कर सके और जीवन को नये सम्बन्धों और सन्दर्भों से जोड़ सके। स्वीकार और अस्वीकार, ग्रहण और त्याग तथा विरोध और सामंजस्य की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि एक रचनाकार अपने समय और परिवेश को पूरी ईमानदारी से अपने साहित्य में अंकित करता हुआ उसे विश्वसनीय बना दे। इसमें प्रकृति की अनाघात छवियां को समाहित कर दे, सौन्दर्य की तरंगें , सांस्कृतिक संदर्भ और इन सबको वाणी प्रदान करने वाली अद्भुत शैली को उत्पन्न कर दे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान युग का हिन्दी साहित्य युग साहित्य है। उसमें समकालीन युग-जीवन की अभिव्यंजना है। उसमें मनुष्य के राग-विराग, आसक्ति-अनासक्ति, स्वीकार-अस्वीकार, ग्रहण और त्याग, जीवन के गुह्य और जटिल संदर्भ, युग-त्रासदी और उससे उत्पन्न विभिन्न मनः स्थितियों का यथार्थ, विश्वसनीय और सही अंकन हुआ है। वर्तमान युग के साहित्य का सर्वप्रमुख गुण है। अनुभूति की ईमानदारी और अभिव्यक्ति का निश्छल स्याह यथार्थ सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके साथ ही समकालीन जीवन की समग्र पहचान-पकड़ और सूक्ष्म संवेदनात्मक अभिव्यक्ति। प्रस्तुत बिन्दुओं पर व्यापक विमर्श करना अन्वेषक का अभीष्ट अन्वेषण होगा ।


----------------------------------


सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
उरई (जालौन)285001

----------------------------------

लेखक का परिचय यहाँ से देखें

1 टिप्पणी:

Dr.Aditya Kumar ने कहा…

आज का आदमी अपने आसपास के अनेक सवालों से टकराता, टूटता और निर्वासित हो रहा है। क्योंकि मनुष्य वैज्ञानिक उपलब्धियों को अपने जीवन में जाने-अनजाने स्वीकार कर रहा है और वैज्ञानिक विचारधारा ही आधुनिकता की धारणा बन गई है.
good