आज की रचना:
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें