कविता ---
रोशनी की तलाश में
रोशनी की तलाश में
नई सदी
है शुष्क सी बहती नदी
हँसता पिशाच दे रहा घाव
नसों में फैल रहा जहरबाद ।
इसके आचमन को
रोक सकेगी ,
कोई मीरा ?
कंठ से उतार सकेगा
कोई शिव ?
गले लगा सकेगा
कोई गांधी ? इनके प्रतिमानों का
क्या हो सकेगा
प्रादुर्भाव ।
अनगिनत प्रश्न
जड़ कर रह गये हैं दिलों में ,
तोड़ रहे हैं उन्हें -हमें ,
और यह है सूर्योदय की
अनचाही एक शाम ।
सुधा भार्गव
* * * *
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें