ग़ज़ल : १
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बस्तियाँ भी परेशाँ-सी रहती वहाँ
आदमी आदमी से ख़फा है जहाँ
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मौत की बात तो बाद की बात है
ज़िन्दगी से अभी तक मिली हूँ कहाँ?
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देर से ही सही दिल समझ तो गया
वक़्त की अहमियत हो रही है जवाँ
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भीड़ रिश्तों की चारों तरफ़ है लगी
ख़ाली फिर भी है क्यों मेरे दिल का मकाँ?
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खेलते हैं खुले आम खतरों से जो
हौसलों ही पे उनके टिका है जहाँ
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दिल के आकाश में देखा जो दूर तक
कहकशाँ से परे भी थी इक कहकशाँ
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ग़ज़लः2
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मौन भाषा को हमारी तर्जुमानी दे गया
एक साकित-से क़लम को फिर रवानी दे गया
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वलवले पैदा हुए हैं फिर मेरे एहसास में
जाने वाला मुस्करा कर इक निशानी दे गया
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दाँव पर ईमान और बोली ज़मीरों पर लगी
कोई शातिर शहर को यूँ बेईमानी दे गया
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डूब कर ही रह गई हूँ आँसुओं की बाढ़ में
ग़म का बादल हर तरफ पानी ही पानी दे गया
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उसके आने से बढ़ी थीं रौनकें चारों तरफ
जब गया तो वो हमें दर्दे-निहानी दे गया
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दे गया जुंबिश मिरे सोए हुए जज़्बात को
मुझको ‘देवी’ आज कोई ज़िन्दगानी दे गया
मुम्बई
2 टिप्पणियां:
bahut achchhi lagi dono hi gazal .har sher apne me ek arth liye tha .badhai.
Shikhaji
aapke utsahan bhare shabd mere liye bahut maaine rakhte hain. Tahe dil se aabhaar
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