02 जनवरी 2010

बुन्देली भाषा के रत्न -शिवानन्द मिश्र 'बुंदेला'


बुन्देलखण्ड के लोककवि शिवानन्द मिश्र ‘बुन्देला’ का जन्म जनपद जालौन के ग्राम दहगुवाँ के विद्वता सम्पन्न परिवार में आषाढ़ कृष्ण 5, संवत् 1990 को हुआ था। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पूज्य पिताजी एवं पूज्य काका से विरासत में प्राप्त हुई थी। बुन्देला जी के पूज्य पिता आचार्य पं0 कमलानन्द मिश्र ‘कंज’ एक ओर संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, दूसरी ओर हिन्दी के आचार्य कवि थे। इसके साथ-साथ उनके काका पं0 दशाराम मिश्र ‘रामकवि’ रससिद्ध बुन्देली कवि थे।
श्री गाँधी इंटर कालेज, उरई से शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने वाले बुन्देला जी सन् 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से एम0ए0 करने के बाद कालेज में प्रवक्ता बने।
बुन्देली भाषा को राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में आपकी काव्य-रचनाओं का विशेष योगदान है।आपकी रचनाएँ शब्दों के माध्यम से चित्रात्मकता पैदा करने वालीं हैं बुन्देला जी की प्रतिनिधि काव्य-रचनाएँ बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी के पाठ्यक्रम में समाहित की गईं हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित रूप से आपकी काव्य-रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। राष्ट्रीय स्तर पर बुन्देली भाषा को कवि सम्मेलनों में आपने एक नई पहचान दी । आप मूलतः वीर रस के कवि के रूप में जाने जाते थे।
आपकी सृजन यात्रा में ‘देखो जो पीरो पट’ (बुन्देली खण्ड-काव्य), बिरिया सी झोर लइ (बुन्देली कविता संग्रह), क्रान्तिकारी बरजोर सिंह (बुन्देली काव्य), अभय सिंह अभई (खड़ी बोली कविता), अमर हरदौल आदि के साथ-साथ दो संस्मरण ‘सम्मेलन मंच पर’ तथा ‘बड़ों के बचकाने’ प्रमुख हैं।
इनकी बुन्देली कविता ‘बिरिया सी झोर लइ’ ने बुन्देला जी को तथा बुन्देली भाषा को नई पहचान दी। यहाँ आपकी यही कविता प्रस्तुत है-

तुरकन ने तिली सी अकोर लइ, गोरन ने गगरी सी बोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने, परजा कों बिरिया सी झोर लइ
नेतन की बातन में घातें हैं।
इनके हैं दिन हमाईं रातें हैं।
मारपीट गारिन को समझत जे,
सब दुधार गैया की लातें हैं।
राजनीति कों तनक मरोर लइ, ढेर भरी सम्पदा अरोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
आउते जो गाँव उर गमैंयन में।
बैठते टिराय चार भैंयन में।
सांचो सो रामराज हुइ जातो,
गाउते मल्हार उन मड़ैंअन में।
कील कील जितै की तंगोर लइ, बूंद-बूंद रकत की निचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लई
दओ उसेय पुलिस की पतेली ने।
लओ उधेर मुंसपी तसीली ने।
लील्हें सब लेत हैं किसानइं कों,
चींथ खाओ जजी ने वकीली ने।
मका केसी अड़िया चिथोर लइ, सहद की छतनियां सी टोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
दूध घी निकारें हम देहाती।
कतर कतर करब पक गई छाती।
मोंड़न के पेट काट बेंचत हैं,
खाय खाय बूस गये शहराती।
मिली तो महेरिअइ भसोर लइ, अमिअंन की गुठलिअइ चचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।

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