30 जनवरी 2010

बंदर मामा

-आचार्य संजीव 'सलिल'


बंदर मामा देख आइना काढ़ रहे थे बाल,

मामी बोली, छीन आइना- 'काटो यह जंजाल'.

मामी परी समझकर ख़ुद को, करने लगीं सिंगार.

मामा बोले- 'ख़ुद को छलना है बेग़म बेकार.

हुईं साठ की अब सोलह का व्यर्थ न देखो सपना'.

मामी झुंझलायीं-' बाहर हो, मुंह न दिखाओ अपना.

छीन-झपट में गिरा आइना, गया हाथ से छूट,

दोनों पछताते, कर मलते, गया आइना टूट.

गर न लडाई करते तो दोनों होते तैयार,

सैर-सपाटा कर लेते, दोनों जाकर बाज़ार.

मेल-जोल से हो जाते हैं 'सलिल' काम सब पूरे,

अगर न होगा मेल, रहेंगे सारे काम अधूरे.

*******************************

29 जनवरी 2010

पुस्तक समीक्षा से सम्बंधित एक ब्लॉग पुस्तक विमर्श

बहुत दिनों से साध थी कि एक ऐसा ब्लाग शुरू किया जाये जिसके माध्यम से पुस्तकों पर चर्चा की जा सके। इधर देखने में आ रहा है कि युवा पीढ़ी लगातार पढ़ने से और अच्छा साहित्य पढ़ने से बच रही है। इसके पीछे एक कारण तो उनके अभिभावकों, गुरुओं अथवा किसी बुजुर्ग द्वारा पुस्तकों के पाठन को प्रेरित न करना है तो एक दूसरा कारण सही पुस्तकों की जानकारी भी न होना है।
इसे पारिवारिक माहौल ही कहिए कि पढ़ने का शौक बचपन से ही बना रहा और उस पर अच्छा काम यह हुआ कि लिखने की बीमारी लग गई। इस लिखने की और हमेशा अच्छा लिखने की बीमारी ने सदैव पढ़ते रहने को प्रेरित किया।
पढ़ने के साथ पंस्तकों की समीक्षा करना, उन पर शोधपरक आलेख तैयार करने ने समीक्षात्मक और आलोचनात्मक दृष्टि भी प्रदान की। इस कारण से भी पुस्तकों पर समीक्षा की दृष्टि से एक शुरूआत करना चाह रहे थे।
ब्लाग (पुस्तक विमर्श) भी बनाया और पुस्तकों की एक लम्बी सूची भी तैयार कर ली, जिन्हें युवाओं को पढ़ना चाहिए। ऐसी पुस्तकों की भी सूची बनाई जिनके द्वारा समाज में इस समय विमर्श की परम्परा चालू है। इसके बाद भी मन में एक कसमसाहट थी कि कोई ऐसी पुस्तक से शुरूआत की जाये जिसके साथ कुछ अपनत्व भरा जुड़ाव हो।

पुस्तक खोजी जा रही थी किन्तु असफलता ही हाथ लग रही थी। ऐसे असमंजस के क्षणों में हमारे भतीजे दीपक ‘मशाल’ ने सारी समस्या ही सुलझा दी। उसके काव्य-संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ का विमोचन हुआ तो लगा कि यही वह पुस्तक है जिसके द्वारा ब्लाग (पुस्तक विमर्श) की शुरूआत की जा सकती है।


बस फिर क्या था पुस्तक की समीक्षा कर डाली और बस आज नहीं कल, आज नहीं कल के साथ दिन निकलते जा रहे थे। इसी आज-कल में आदरणीय निर्मला कपिला जी के ब्लाग वीर बहूटी पर अनुभूतियाँ की समीक्षा देखी। इस समीक्षा को देखकर लगा कि हमारा प्रयास तो लगता है निरर्थक गया। समीक्षात्मक और आलोचनात्मक दृष्टि के बाद भी हम इस तरह की समीक्षा में अपने को पारंगत नहीं बना पाये जैसा कि निर्मला कपिला जी ने उदाहरण दिया है।
उनसे अनुरोध करने के बाद उन्होंने सहृदयता के साथ अपनी समीक्षा को पुनः इस ब्लाग (पुस्तक विमर्श) पर पोस्ट करने की अनुमति दी, उनके प्रति आभार। हमारे मन में एक अप्रत्याशित खुशी भी है कि ब्लाग की पहली पोस्ट समीक्षा के रूप में लगने जा रही है हमारे भतीजे के काव्य-संग्रह की और इस पोस्ट को शब्द मिले हैं प्रतिष्ठित ब्लाग सदस्य आदरणीय निर्मला कपिला जी के।
पुनः निर्मला जी का आभार करते हुए आप सभी से काव्य-संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ की समीक्षा पढ़ने का निवेदन है। इस समीक्षा को मूल रूप में निर्मला जी के ब्लाग ‘वीर बहूटी’ पर भी यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

विशेष आलेख: डॉ.महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

विशेष आलेख:

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.

संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. असंस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.

'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.
यत्नोस्यां कविना कार्यः को लं कारो नया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.

शब्दालंकारों की छटा:

डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.

शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.

'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.

एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.

अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .

गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .

इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'

महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.

समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.

शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.

'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'

चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है. बानगी देखें:

डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.

प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.

रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.

डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'

डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.

कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.

'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.

डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारन उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.

'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.

स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.

तत्सम-तद्भव शब्द-भ्नादर के धनि डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारन गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.

सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.

*****************************************

सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.com

28 जनवरी 2010

नवगीत / भजन: भोर हो गयी... संजीव 'सलिल'

नवगीत / भजन:

संजीव 'सलिल'

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***

रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.

जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

25 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:

सारा का सारा हिंदी है

आचार्य संजीव 'सलिल'
*

जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.

लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.

गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,

ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.

लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.

प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.

स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.

बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.

पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.

गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.

अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.

ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.

कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.

झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.

कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.

गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.

रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.

आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.

शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.

तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.

रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

****************************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

23 जनवरी 2010

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आदर्श माने, उनकी मौत को विवाद न बनाएं,

‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करता है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवट का व्यक्ति होगा। आज हम उसी जीवट व्यक्तित्व की जयन्ती मना रहे हैं।


कहना न होगा कि सुभाषचन्द्र बोस ने देश हित में एक सच्चा सशस्त्र संघर्ष छेड़ा था। देश के अन्दर उस समय सभी में देश स्वातन्त्रय की इच्छा थी। जो जिस रूप में समृद्ध था वह उसी रूप में देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर करना चाहता था।



ऐसी स्थिति में नेताजी ने देश के बाहर जाकर आजाद हिन्द फौज का गठन किया और कुशल नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया। नेताजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को यदि देखा जाये तो उनमें प्रखर चिन्तक, कुशल नेतृत्वकर्ता, सच्चे देशभक्त के साथ-साथ अपने बड़ों का सम्मान करना भी दिखता है।

उनके अंग्रेजों के विरुद्ध किये जा रहे कार्य को उनके पिता ने बहुत पसंद नहीं किया था। अपने पिता के सामने अपने आपको साबित करने की दृष्टि से ही उन्होंने उस समय की सबसे प्रतिष्ठित और कठिन परीक्षा आई0 सी0 एस0 को पास किया था। चूँकि नेताजी का लक्ष्य किसी भी तरह से विदेशी नौकरी करना नहीं था उन्हें इस बात को सिद्ध करना था कि उस समय की इस कठिन परीक्षा को कोई हिन्दुस्तानी भी पास कर सकता है।

अपने आपको देश सेवा और देश की आजादी के लिए समर्पित कर चुके नेताजी को जब अंग्रेज खतरा समझने लगे तो उनको नजरबन्द कर दिया गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में नेताजी बिना घबराये अंग्रेजों की नजरबन्दी से भाग निकले और अपने कार्यों से अंग्रेजी सरकार को परेशान करते रहे।

आजाद हिन्द फौज का गठन और उस पर विदेशी धरती पर भारत देश के लिए समर्थन जुटाने जैसा कार्य वही कर सकता था जिसके पर अद्भुत नेतृत्व क्षमता हो। नेताजी ने ऐसा किया भी और तो और महात्मा गाँधी से अपने वैचारिक मतभेदों को भुलाकर नेताजी ने ही पहली बार उनको राष्ट्रपिता की उपाधि से सम्बोधित किया। यह नेताजी का अपने बड़ों के प्रति प्रेम और सम्मान को दर्शाता है।




शायद परिणाम कुछ और ही होना था, इस कारण द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की पराजय हुई। नेताजी की आजाद हिन्द फौज इसके बाद भी बिना हताशा के युद्ध लड़ती रही। अन्त किसी न किसी रूप में पराजय से हुआ किन्तु नेताजी अंग्रेजों के बीच इस सन्देश को प्रसारित करने में सफल रहे कि अब देश को बहुत दिनों तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है।

नेताजी ने अपनी रणनीति को बन्द नहीं किया। वे इसके बाद भी एक और प्रयास करने के पक्ष में थे। यही कारण है कि अपनी रणनीतिक यात्रा में वे एक विमान हादसे का शिकार हो गये। यह हादसा भारत देश की आजादी के लिए तो ग्रहण साबित हुआ ही साथ ही नेताजी जैसे व्यक्तित्व के लिए भी एक ग्रहण लेकर आया।

नेताजी के मौत ने कई सवाल खड़े कर दिये। मौत हुई या नहीं? विमान हादसे में हुई या किसी और तरह से? नेताजी देश की आजादी के बाद भी देश में रहे आदि-आदि। कुछ भी हो, नेताजी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि तो यह होनी चाहिए कि उन्हें बिना किसी विवाद के हम एक आदर्श रूप में स्वीकारें।

यहाँ हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि यदि किसी भी समय यह सिद्ध हो जाता कि फलां व्यक्ति नेताजी हैं तो क्या होता? चूँकि नेताजी को युद्ध अपराधी घोषित किया जा चुका था और उनके सामने आने पर किसी किसी रूप में वैश्विक दवाब में नेताजी को सौंपना होता। क्या यह हमारे लिए स्वाभिमानी कदम होता?

विविध सरकारों द्वारा समय-समय पर आयोग बनाकर नेताजी के सम्बन्ध में जाँच करवाई जाती रही। किसी आयोग द्वारा तो यहाँ तक कहा गया कि जापान के रणकोजी मंदिर में जिस कलश में नेताजी की अस्थियाँ रखीं हैं उनकी डीएनए जाँच करवा कर सिद्ध किया जाये कि ये नेताजी की अस्थियाँ हैं भी या नहीं। इससे क्या सिद्ध होता? जिस कलश को हम नेताजी की अस्थियों के कारण पूज्य मान रहे हैं उसका भी निरादर कर दें।

कुछ भी हो नेताजी की मौत पर विवाद करके हम किसी न किसी रूप में उनकी आत्मा को ही कष्ट पहुँचा रहे हैं। हमें यदि उनको आदर्श सिद्ध करना है तो उनको उसी रूप में स्वीकार करना होगा। हमारा अकसर कहना भी होता है कि जिसे आप खोज सकें तो उसको उसी स्वरूप में स्वीकार करलें जो आपके सामने है। नेताजी की मौत को विवाद न बनाकर उनके कार्यों से प्रेरणा लें। उनको आदर्श बनायें और अपनी युवा पीढ़ी के लिए उनसे कुछ सीखने का वचन लें। यही नेताजी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

22 जनवरी 2010

ग़ज़ल बहुत हैं मन में लेकिन --संजीव 'सलिल'


ग़ज़ल

संजीव 'सलिल'

बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.
पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..

लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..

तुम्हारे नेह के नाते न कोई तोड़ पायेगा.
दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..

छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..

जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.
'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..

********************************

21 जनवरी 2010

माँ सरस्वती शत-शत वन्दन --संजीव 'सलिल'

माँ सरस्वती शत-शत वन्दन

संजीव 'सलिल'

माँ सरस्वती! शत-शत वंदन, अर्पित अक्षत हल्दी चंदन.
यह धरती कर हम हरी-भरी, माँ! वर दो बना सकें नंदन.
प्रकृति के पुत्र बनें हम सब, ऐसी ही मति सबको दो अब-
पर्वत नभ पवन धरा जंगल खुश हों सुन खगकुल का गुंजन.
*
माँ हमको सत्य-प्रकाश मिले, नित सद्भावों के सुमन खिलें.
वर ऐसा दो सत्मूल्यों के शुभ संस्कार किंचित न हिलें.
मम कलम-विचारों-वाणी को मैया! अपना आवास करो-
मेर जीवन से मिटा तिमिर हे मैया! अमर उजास भरो..
*
हम सत-शिव-सुन्दर रच पायें ,धरती पर स्वर्ग बसा पायें.
पीड़ा औरों की हर पायें, मिलकर तेरी जय-जय-जय गायें.
गोपाल, राम, प्रहलाद बनें, सीता. गार्गी बन मुस्कायें.
हम उठा माथ औ' मिला हाथ हिंदी का झंडा फहरायें.
*
माँ यह हिंदी जनवाणी है, अब तो इसको जगवाणी कर.
सम्पूर्ण धरा की भाषा हो अब ऐसा कुछ कल्याणी कर.
हिंदीद्वेषी हो नतमस्तक खुद ही हिंदी का गान करें-
हर भाषा-बोली को हिंदी की बहिना वीणापाणी कर.
*

20 जनवरी 2010

बासंती दोहा ग़ज़ल --संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल


संजीव 'सलिल'


स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..


पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..


महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..


नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..


नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..


मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..


ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..


घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..


बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निएमल-विमल सँवार..

************************************

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

19 जनवरी 2010

मुक्तिका: खुशबू --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

खुशबू

संजीव 'सलिल'

कहीं है प्यार की खुशबू, कहीं तकरार की खुशबू..
कभी इंकार की खुशबू, कभी इकरार की खुशबू..

सभी खुशबू के दीवाने हुए, पीछे रहूँ क्यों मैं?
मुझे तो भा रही है यार के दीदार की खुशबू..

सभी कहते न लेकिन चाहता मैं ठीक हो जाऊँ.
उन्हें अच्छी लगे है दिल के इस बीमार की खुशबू.

तितलियाँ फूल पर झूमीं, भ्रमर यह देखकर बोला.
कभी मुझको भी लेने दो दिले-गुलज़ार की खुशबू.

'सलिल' थम-रुक न झुक-चुक, हौसला रख हार को ले जीत.
रहे हर गीत में मन-मीत के सिंगार की खुशबू..

****************

डॉ0 जयजय राम आनन्द के दोहे -- सन्नाटे में गाँव

बाग़ बगीचे गाँव में,खो बैठे पहचान
आम जाम जामुन हुए,बाज़ारों की शान.
.
पीपल बरगद नीम ने,खींच लिए हैं हाथ
हमने ही जबसे दिया,नीलामी का साथ.
.
ताल तलैया नहर के,बदल गए हैं पाट
अन्धकार में रौशनी, लिए गाँव में हाट.
.
गायब सब पगदंदियाँ,खा चकबंदी मार
सड़कें जोडें गाँव के,अब शहरों से तार.
.
सड़क गाँव को ले गई, फुटपाथों की छाँव
संनते में भटकते,छानी छप्पर गाँव.
.
अत पात पीले झरे,खड़े पेड़ सब ठूंठ
जगर मगर सब शहर की,गयी गाँव से रूठ.
.
ठिठुर ठिठुर ठंडा हुआ,होरी धनिया गाँव
रातरात भर तापता,जान बचाय अलाव.
.
घर आँगन बरसात में,कीचड दलदल गाँव
पछताते नर नारियाँ,जामे रोग के पाँव.
.
जमींदार खोखल हुए,बेंचे खाएं खेत
धन दौलत इज्ज़त हुई,ज्यों मुठ्ठी में रेत.
.
जिनके घर में थी नहीं,कौडी भून्जीं भांग
हाथ पसारे गाँव की,पूरी करते मांग.
.
भूमिहीन हैं गाँव में,ऋण से लदे किसान
दानों को मुहताज है,संकट में ईमान.
.
बांग न मुर्गों की मिले,बन बागन में मोर
जकडे सारे गाँव को,बाघ भेड़िया शेर.
.
घर आँगन खलियान का,बदल गया भूगोल
गली गली में डोलता, राजनीति भूडोल.
.
तोप तमंचा गोलियाँ,घर घर चौकीदार
पकड़ फिरौती मांग में,शामिल रिश्तेदार.
.
शाम ढले कपने लगे,थर थर सारा गाँव
द्वार देहरी में बधें, नर नारी के पाँव.
.
कहाँ न जाने खो गए, रेशम से सम्बन्ध
खान पान अनुराग के, भंग हुए अनुबंध.

===================

डॉ० जयजय राम आनंद
भोपाल

16 जनवरी 2010

नवगीत: गीत का बनकर /विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'


गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...


कोहरे से

गले मिलते भाव.

निर्मला हैं

बिम्ब के

नव ताव..

शिल्प पर शैदा

हुई रजनी-

रवि विमल

सम्मान करता है...


गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...


फूल-पत्तों पर

जमी है ओस.

घास पाले को

रही है कोस.

हौसला सज्जन

झुकाए सिर-

मानसी का

मान करता है...


गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...



नमन पूनम को

करे गिरि-व्योम.

शारदा निर्मल,

निनादित ॐ.

नर्मदा का ओज

देख मनोज-

'सलिल' संग

गुणगान करता है...


गीत का बनकर

विषय जाड़ा

खुदी पर

अभिमान करता है...

******

12 जनवरी 2010

सुरेन्द्र अग्निहोत्री की चार कवितायेँ

लम्पट

===============

अरे ये लम्पट!
क्यों तू गा रहा है अग्निपथ-अग्निपथ!
अपने स्वार्थ के लिए
किसी का भी पाता सानिध्य
जिसने दी जड़ों को खाद और पानी
उसी के साथ कर ली बेईमानी
मैं और मेरे बच्चों के लिए
करता रहा मेल-जोल
धन के लिए ही करता है
नाप तोल कर गोल
मंगल के अमंगल से बचने
बकरी के बच्चे सा
होने वाली बहू का कान पकड़
करता मन्दिरों की नाप जोख
काल के ताण्डव का
हो न अपने परिवार पर प्रकोप
देश, समाज, शहर के लिए
क्या किया बता सके यह सवाल?
अपने को कृषक बताकर लूटना चाहता
गरीबों का माल
कब चलाया है हल?
फिर क्यों लेना चाहते झूठा प्रतिफल!

==

छूट

==============

जो जहां काबिज हे
उसे खुली छूट है
मर्यादाओं का खूब उल्लंघन करे
भावनाओं को जमके छले
लीपापोती की हास्यास्पद हरकत करे
आपकी असुविधा पर सुचिंतित दिखे
मतलब सिद्ध हुए बिन एक न सुने
जिस पर किसी का अंकुश नहीं
न किसी का चाबुक कर सके काबू
आजाद भारत का है वह बाबू!

===

इंतजार

==============

द्वार पर दर्द की यादें है
दिखने और होने के बीच
घुंघलका छंटने का इंतजार है
बिगुल फूंकने के लिए जुगत जारी
संकेतों में कर ली पूरी तैयारी
अपने-अपने दर्द और समस्याओं की फेहरिश्त लेकर
अपने सामने आते-जाते रहते हैं
उपेक्षित क्या यह समझ नहीं पाते हैं
भीनी-भीनी खूशबू में उलझकर
सजी-धजी रह जाती है तैयारी।

===

शिद्दत

=================

चिलचिलाती धूप में
तपती हुई तारकोल की सड़क पर
हम सवारियां ही नहीं मजबूरियां भी
कड़कड़ाती सर्दी में, मूसलाधार वर्षा में
बड़ी शिद्दत से ढो रहे हैं
आप रहे कूलरों-एअर कंडीशनरों में
हमें फर्क नहीं पड़ता है
बेरोजगारी और बेकारी में
पेट की आग बुझाने के लिए
कुछ न कुछ श्रम तो कर रहे हैं
सिर छुपाने की चिंता नहीं
हमने रिक्शे को बना लिया घर
जनपथ से राजपथ लगाए तीन चक्कर
नहीं थे पैसो अन्यथा खरीद लेता थ्रीव्हीलर
पर मुझे शहर से क्यों खदेड़ रहे।
हम भी मानव हैं
क्यों जानवर बना रहे है।

====================

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन 120/132 बेलदारी लेन,
लालबाग, लखनऊ
मो0 9415508695

मौत

आज मैंने मौत को देखा
अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में हवस की शिकार
वो सड़क के किनारे पड़ी थी
ठण्डक में ठिठुरते भिखारी के
फटे कपड़ों से वह झांक रही थी
किसी के प्रेम की परिणति बनी
मासूम के साथ नदी में बह रही थी
नई-नवेली दुल्हन को दहेज की खातिर
जलाने को तैयार थी
साम्प्रदायिक दंगों की आग में
वह उन्मादियों का बयान थी
चंद धातु के सिक्कों की खातिर
बिकाऊ ईमान थी
आज मैंने मौत को देखा ।






11 जनवरी 2010

तेवरी: नफरत की भट्टी में --संजीव 'सलिल'

तेवरी

संजीव 'सलिल'

नफरत की भट्टी में सुलग रहा देश.
कलियाँ नुचवाता दे माली आदेश..

सेना में नेता-सुत एक भी नहीं.
पढिये, क्या छिपा हुआ इसमें संदेश?.

लोकतंत्र पर हावी लोभतंत्र है.
लेन-देन में आती शर्म नहीं लेश..

द्रौपदी-दुशासन ने मिला लिये हाथ.
धर्मराज के खींचें दोनों मिल केश.

'मावस अनमोल हुई, पूनम बेदाम..
निशा उषा संध्या को ठगता राकेश..

हूटर मदमस्त, पस्त श्रमिक हैं हताश.
खरा त्याज्य, है वरेण्य खोता परिवेश..

पूज रहा सत्य को असत्य आचरण.
नर ने नारायण को 'सलिल' दिया क्लेश..

*******************

09 जनवरी 2010

गीत: हे समय के देवता! --संजीव 'सलिल'

गीत

हे समय के देवता!

संजीव 'सलिल'

*

हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...

*

श्वास जब तक जल रही है,

आस जब तक पल रही है,

अमावस का चीरकर तम-

प्राण-बाती जल रही है.

तब तलक रवि-शशि सदृश हम

रौशनी दें तनिक जग को.

ठोकरों से पग न हारें-

करें ज्योतित नित्य मग को.

दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.

हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...

*

नयन में आँसू न आये,

हुलसकर हर कंठ गाये.

कंटकों से भरे पथ पर-

चरण पग धर भेंट आये.

समर्पण विश्वास निष्ठां

सिर उठाकर जी सके अब.

मनुज हँसकर गरल लेकर-

शम्भु-शिववत पी सकें अब.

दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..

हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...

*

सत्य-शिव को पा सकें हम'

गीत सुन्दर गा सकें हम.

सत-चित-आनंद घन बन-

दर्द-दुःख पर छा सकें हम.

काल का कुछ भय न व्यापे,

अभय दो प्रभु!, सब वयों को.

प्रलय में भी जयी हों-

संकल्प दो हम मृण्मयों को.

दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.

हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...

*

ivyanarmada.blogspot.com

03 जनवरी 2010

सरस्वती वंदना नन्दन कानन --संजीव 'सलिल'

सरस्वती वंदना

संजीव 'सलिल'

अम्ब विमल मति दे

हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....

नन्दन कानन हो यह धरती।
पाप-ताप जीवन का हरती।
हरियाली विकसे.....

बहे नीर अमृत सा पावन।
मलयज शीतल शुद्ध सुहावन।
अरुण निरख विहसे.....

कंकर से शंकर गढ़ पायें।
हिमगिरि के ऊपर चढ़ जाएँ।
वह बल-विक्रम दे.....

हरा-भरा हो सावन-फागुन।
रम्य ललित त्रैलोक्य लुभावन।
सुख-समृद्धि सरसे.....

नेह-प्रेम से राष्ट्र सँवारें।
स्नेह समन्वय मन्त्र उचारें।
' सलिल' विमल प्रवहे.....

************************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

जानिए '१ विकल उरई ' को

आपने अकसर कार, बस, ट्रेन आदि से यात्रा करते समय सड़क-रेलवे लाइन के आसपास की दीवारों पर, पुलों की कोठियों पर प्रेरक संदेश लिखे देखे होंगे जो जनता को सोचने पर विवश कर देते हैं । ऐसे संदेश आपको अपने शहर की गलियों में घूमते-टहलते भी लिखे दिख जाते होंगे।-
‘नमस्कार दिल से बोला, चाहे करो सलाम। मकसद सबका एक है, हो प्रेम भरा प्रणाम।’
इस तरह की मन को आकर्षित करने वाली,एवं लोगों में जागरूकता का संचार करने वाले संदेशों साथ ‘ विकल, उरई’ लिखा देखकर कई प्रश्न कौंधते हैं। कौन है यह' १ विकल'? कोई व्यक्ति है, संस्था है अथवा कोई धर्म है? कहीं यह किसी नये धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत तो नहीं है?

ऐसा कुछ भी नहीं है, '१ विकल' हम और आप जैसा एक साधारण इंसान है जो अन्तरात्मा की आवाज पर स्थान-स्थान पर वाल पेंटिंग के द्वारा लोगों को जागरूक करने का कार्य कर रहा है।' विकल' जी का वास्तविक नाम श्री जागेश्वर दयाल है। जनपद जालौन (उ0प्र0) के ग्राम बिरगुवाँ बुजुर्ग में इनका जन्म खांगर क्षत्रिय (परिहार ठाकुर) परिवार में हुआ।

अपने जन्म स्थान के निकट स्थित बैरागढ़ की देवी माँ शारदा को अपना इष्ट मानने वाले 1 विकल के आराध्यदेव श्री बाँकेबिहारी हैं। कानपुर विश्वविद्यालय के स्नातक जागेश्वर दयाल देश के सर्वांगींण विकास हेतु सभी धर्मों को एकसमान रूप से एक हो जाने की मान्यता पर बल देते हैं। इसी कारण उन्होंने एक राष्ट्रीय धर्म चिन्ह की कल्पना कर उसका निर्माण किया और उसको स्वीकार्यता प्रदान करवाने हेतु महामहिम राष्ट्रपति जी को विनम्र निवेदन भी किया है।
उनके सामाजिक संदेश देने वाले कुछ मुख्य नारे इस प्रकार हैं--
देश की बेटी करे पुकार,
हमें चाहिए सम अधिकार।

बेटा-बेटी एक समान,
तभी बढ़ेगा हिन्दुस्तान।
राजनीतिक पार्टियों से आयें कुशल कार्यकर्ता,
तभी बनेगी देश में शुद्ध आचार-संहिता।

राष्ट्र में हो जब एकीकरण
तभी बनेगा सामाजिक समीकरण।
धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ, नफरत पैदा हो जिसमें जब एक उसी की संतानें, फिर भेदभाव है किसमें।
जाति और धर्म के नाम पर, इतना बड़ा धोखा।
बाहर से चकाचक, अन्दर से खोखा ही खोखा।।
बकवास करते हैं वे सब, जो कहते हमने खुदा देखा। अरे खाक देखा उसने खुदा, जिसने खुद को नहीं देखा।।
पहले खुद के खुदा को जानो, बाद में दूसरों की बात मानो।
इससे बड़ा न कोई खुदा है न भगवान, बस इतना ही जानो।।
हिन्दू संगठन हो या मुसलमानी जमात,
सबसे ऊँची राष्ट्र की बात।

नवजवानों के सामने है, रोजी रोटी का सवाल।
ये देश की समस्या है, इसका उपाय हो तत्काल।।
हम दलों की बात नहीं करते हैं, दिलों की बात करते हैं। वतन के काम आये जो, उन महफिलों की बात करते हैं।।
हर किसी के सामने झुको नहीं, लक्ष्य से पहले रुको नहीं।
कामयाबी मिलेगी तुम्हें, पर गलत जगह यों टिको नहीं।।
जो जातिवाद जो फैला रहे,
वो देश के नायक कहला रहे।

जातिगत आरक्षण एक दिन, समाज में आग लगायेगा।
मरेगी गरीब जनता और ये मुद्दा बनके रह जायेगा।।

02 जनवरी 2010

बुन्देली भाषा के रत्न -शिवानन्द मिश्र 'बुंदेला'


बुन्देलखण्ड के लोककवि शिवानन्द मिश्र ‘बुन्देला’ का जन्म जनपद जालौन के ग्राम दहगुवाँ के विद्वता सम्पन्न परिवार में आषाढ़ कृष्ण 5, संवत् 1990 को हुआ था। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पूज्य पिताजी एवं पूज्य काका से विरासत में प्राप्त हुई थी। बुन्देला जी के पूज्य पिता आचार्य पं0 कमलानन्द मिश्र ‘कंज’ एक ओर संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, दूसरी ओर हिन्दी के आचार्य कवि थे। इसके साथ-साथ उनके काका पं0 दशाराम मिश्र ‘रामकवि’ रससिद्ध बुन्देली कवि थे।
श्री गाँधी इंटर कालेज, उरई से शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने वाले बुन्देला जी सन् 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से एम0ए0 करने के बाद कालेज में प्रवक्ता बने।
बुन्देली भाषा को राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में आपकी काव्य-रचनाओं का विशेष योगदान है।आपकी रचनाएँ शब्दों के माध्यम से चित्रात्मकता पैदा करने वालीं हैं बुन्देला जी की प्रतिनिधि काव्य-रचनाएँ बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी के पाठ्यक्रम में समाहित की गईं हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित रूप से आपकी काव्य-रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। राष्ट्रीय स्तर पर बुन्देली भाषा को कवि सम्मेलनों में आपने एक नई पहचान दी । आप मूलतः वीर रस के कवि के रूप में जाने जाते थे।
आपकी सृजन यात्रा में ‘देखो जो पीरो पट’ (बुन्देली खण्ड-काव्य), बिरिया सी झोर लइ (बुन्देली कविता संग्रह), क्रान्तिकारी बरजोर सिंह (बुन्देली काव्य), अभय सिंह अभई (खड़ी बोली कविता), अमर हरदौल आदि के साथ-साथ दो संस्मरण ‘सम्मेलन मंच पर’ तथा ‘बड़ों के बचकाने’ प्रमुख हैं।
इनकी बुन्देली कविता ‘बिरिया सी झोर लइ’ ने बुन्देला जी को तथा बुन्देली भाषा को नई पहचान दी। यहाँ आपकी यही कविता प्रस्तुत है-

तुरकन ने तिली सी अकोर लइ, गोरन ने गगरी सी बोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने, परजा कों बिरिया सी झोर लइ
नेतन की बातन में घातें हैं।
इनके हैं दिन हमाईं रातें हैं।
मारपीट गारिन को समझत जे,
सब दुधार गैया की लातें हैं।
राजनीति कों तनक मरोर लइ, ढेर भरी सम्पदा अरोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
आउते जो गाँव उर गमैंयन में।
बैठते टिराय चार भैंयन में।
सांचो सो रामराज हुइ जातो,
गाउते मल्हार उन मड़ैंअन में।
कील कील जितै की तंगोर लइ, बूंद-बूंद रकत की निचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लई
दओ उसेय पुलिस की पतेली ने।
लओ उधेर मुंसपी तसीली ने।
लील्हें सब लेत हैं किसानइं कों,
चींथ खाओ जजी ने वकीली ने।
मका केसी अड़िया चिथोर लइ, सहद की छतनियां सी टोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
दूध घी निकारें हम देहाती।
कतर कतर करब पक गई छाती।
मोंड़न के पेट काट बेंचत हैं,
खाय खाय बूस गये शहराती।
मिली तो महेरिअइ भसोर लइ, अमिअंन की गुठलिअइ चचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।

01 जनवरी 2010

शुभ कामनाएं सभी को... संजीव "सलिल"

शुभ कामनाएं सभी को...

संजीव "सलिल"

salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.com

*

शुभकामनायें सभी को, आगत नवोदित साल की.

शुभ की करें सब साधना,चाहत समय खुशहाल की..

शुभ 'सत्य' होता स्मरण कर, आत्म अवलोकन करें.

शुभ प्राप्य तब जब स्वेद-सीकर राष्ट्र को अर्पण करें..

शुभ 'शिव' बना, हमको गरल के पान की सामर्थ्य दे.

शुभ सृजन कर, कंकर से शंकर, भारती को अर्ध्य दें..

शुभ वही 'सुन्दर' जो जनगण को मृदुल मुस्कान दे.

शुभ वही स्वर, कंठ हर अवरुद्ध को जो ज्ञान दे..

शुभ तंत्र 'जन' का तभी जब हर आँख को अपना मिले.

शुभ तंत्र 'गण' का तभी जब साकार हर सपना मिले..

शुभ तंत्र वह जिसमें, 'प्रजा' राजा बने, चाकर नहीं.

शुभ तंत्र रच दे 'लोक' नव, मिलकर- मदद पाकर नहीं..

शुभ चेतना की वंदना, दायित्व को पहचान लें.

शुभ जागृति की प्रार्थना, कर्त्तव्य को सम्मान दें..

शुभ अर्चना अधिकार की, होकर विनत दे प्यार लें.

शुभ भावना बलिदान की, दुश्मन को फिर ललकार दें..

शुभ वर्ष नव आओ! मिली निर्माण की आशा नयी.

शुभ काल की जयकार हो, पुष्पा सके भाषा नयी..

शुभ किरण की सुषमा, बने 'मावस भी पूनम अब 'सलिल'.

शुभ वरण राजिव-चरण धर, क्षिप्रा बने जनमत विमल..

शुभ मंजुला आभा उषा, विधि भारती की आरती.

शुभ कीर्ति मोहिनी दीप्तिमय, संध्या-निशा उतारती..

शुभ नर्मदा है नेह की, अवगाह देह विदेह हो.

शुभ वर्मदा कर गेह की, किंचित नहीं संदेह हो..

शुभ 'सत-चित-आनंद' है, शुभ नाद लय स्वर छंद है.

शुभ साम-ऋग-यजु-अथर्वद, वैराग-राग अमंद है..

शुभ करें अंकित काल के इस पृष्ट पर, मिलकर सभी.

शुभ रहे वन्दित कल न कल, पर आज इस पल औ' अभी..

शुभ मन्त्र का गायन- अजर अक्षर अमर कविता करे.

शुभ यंत्र यह स्वाधीनता का, 'सलिल' जन-मंगल वरे..

*******************

कविता --एक शिकायत







नव
वर्ष
तुम्हारे अभिनन्दन के लिए
रात- दिन नेत्र ज्योति जलाये रहा
मित्रों ने शुभ कामनाएँ भी दीँ
मैंने उन्हें तुम्हारा स्वागत करने को कहा
पर मेरी चौखट पर तो तुम आये ही नहीं I


मैं
नदी -नाले गया
बाल्टियाँ पानी भरा
घर का कोना -कोना धोया
तुम्हारे अभिनन्दन के लिये


मैं
फूलों की नगरी गया
निर्जीव फूलों को सजीव जानकार खरीदा
छज्जा -दरवाजा सजाया
तुम्हारे अभिनन्दन के लिये


मैं व्यापारी के पास गया
कर्मों का गुणा -भाग लिया
तुम्हें दिखाना जो था
अपने भविष्य के लिये


मैं अमीरों की अटरिया पर चढ़ गया
तुम्हें दिल से पुकारा
तड़पता ही रहा
तुमसे मिलने के लिये


मैंने
ऊँची अदालत खट खटाई
तुम्हारे विरोध में अपील की
तुम माफ कर दिए गये
मेरा खून करने के लिये


अब
तो बतला दो
तुम कटीले जंगल में खो गये थे
या चाहते हुए भी मुझे नहीं सुना
संदेह का यह कीड़ा
मेरी मृत्युस्थली पर मुझसे ही
जंग कर रहा है

सुधा भार्गव
sudhashilp.blogspot.com



* *********** *