बसंत का मौसम जब अपने पूरे यौवन पर आ जाता है तब चारो ओर फागुन की मस्ती और इन्द्र धनुषी रंगों की बयार बहने लगती है।हर त्यौहार का अपना रंग अपना महत्व है लेकिन फागुन का मौसम जब आता है अपने साथ रंग गुलाल की फुहार,, भंग की तरंग और हर तरफ मौज मस्ती की बयार लेकर आता है। इसका आन्नद ही कुछ और होता है क्योंकि होली में चैतरफा रंगों की फुहार होती है। यानी लाल-पीले-हरे-गुलाबी रंगों का त्यौहार के साथ-साथ भावनाओं के समन्वय एवं मन के मिलन का उत्सव होने के साथ ही फुल टाइम मौज मस्ती, उल्लास एवं उमंग का उत्सव माना जाता है। इस रंगों के पर्व में जहाँ एक ओर साठ वर्ष की उम्र का व्यक्ति अपने को जवान नजर आता है वहीं बच्चे भी इस पर्व की मस्ती के आलम में अपने को जवान महसूस करने लगते हैं। अर्थात् रंगों का यह पर्व अपने अन्दर अनेक विविधताओं को समाहित किये हुए है। आखिर इस पर्व की विविधताएं एवं मान्यतायें क्या हैं इसके लिए हमें अपने देश के विविध प्रान्तों की ओर चलना होगा।
रंगों का यह पर्व अपने आप में देखने में एक लगता है परन्तु इसे पूरे भारत में मनाने/अपनाये जाने के विविध पहलू हैं। वास्तव में अवलोकन किया जाय तो सच्चे अर्थों में यह रंग पर्व अनेकता में एकता की वास्तविक मिसाल सामने रखता है। इस पर्व के मनाये जाने/खेले जाने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे कि नाम से रंग के रूप मे यह पर्व रंगों के द्वारा मनाया जाता है पर कहीं-कही यह गुलाल के साथ, कहीं यह फूलों के रूप में मनाया जाता है तो कही पत्थरों से, कहीं-कही इस पर्व में लट्ठ चलते हैं तो कही से कोड़े के साथ इसका आगाज किया जाता है तो कहीं आटे, कीचड़ से, कहीं-कहीं दूध, दही मट्ठे और कढ़ी से भी खेलने का रिवाज परम्परागत रूप से आज भी चल रहा है।
महाराष्ट्र एवं गुजरात में होली (रंगपर्व) के दिन आम स्थान एवं सड़कों के बीच एक निश्चित ऊँचाई में दूध-मक्खन की मटकी को किसी आधार में बाँध देते हैं। यहाँ के लोगों में ऐसी मान्यताएं एवं विश्वास है कि भगवान कृष्ण (माखन चोर) आकर इसे खांयेगें और अपने ग्वालों को भी खिलांएगे। इसी समय उमंग एवं विश्वास के साथ सभी लोग ‘गोविन्दा आल्हा रे’ जरा मटकी संभाल ब्रजबाला ’ का सामूहिक गायन करते हैं। ‘रंग पंचमी’ के नाम से ग्रामीण इलाकों (महाराष्ट्र) में इसे मनाया जाता है। रंगों के इस पर्व को पंजाब में ‘होली मोहल्ला’ कहते हैं जिसे सिख समुदाय के एक पंथ के लोग रंग पर्व के अगले दिन अपने प्राचीन हथियारों के साथ स्वांग रचने का भव्य आयोजन करते हैं। वहीं हरियाणा में भी इस रंगपर्व को बड़े उत्साह के साथ मनाता है। घर में परिवार के सदस्यों के साथ भाभी अपने देवर को साड़ी के फंदे बनाकर मारने/पीटने का नाटक करती हैं वहीं दूसरी ओर चैराहे एवं सड़कों पर दूध-मक्खन से भरी हांडी (मटकी) को दो आधारों के बीच बांधकर पुरूष वर्ग पिरामिड के आकार में बनकर उसे तोड़ने का उपक्रम करते हैं। यहाँ की स्थानीय भाषा में इसे ‘धुलुडी होली’ भी कहते हैं। पं0 बंगाल में इस पर्व के दिन श्री कृष्ण और राधा की मूर्ति को सभी लोग एक झूले में रखकर उनके चारों ओर झूमते हैं इसके साथ ही रंगों का आपस में आदान-प्रदान कर बैंड बाजे के साथ होली पर्व मनाते हैं। यहाँ इसे ‘दोल यात्रा’ के नाम से जाना जाता है। महत्वपूर्ण यह है कि बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने होली के नये रूप ’बसंत उत्सव’ से परिचित कराया। वर्तमान में शांति निकेतन विश्वभारती विश्वविद्यालय में होली को बसंत उत्सव के रूप में मनाते हैं। राजस्थान (बाड़मेर) में पहले फूलों एवं पत्थरों से होली खेली जाती थी। वर्तमान में मांडवा में लोग सिर्फ अबीर-गुलाल से इस रंग पर्व को मनातें हैं और रंगों का प्रयोग नहें करते हैं। दक्षिण भारत में भी इस रंगपर्व को लोग उत्साह से मनाते हैं। साथ ही एक दूसरे के घर पर जाकर शुभकामनाएं देते -लेते हैं। दक्षिण भारत में इस रंग पर्व को ‘कामुस पुत्ररू’ कहते हैं। मणिपुर में होली को ‘योगंस’ कहते हैं। चांदनी रात में लोग ढोल बजाकर लोकगीत गाते हैं। यहाँ के लोग अपनी परम्परागत/पारंपरिक सफेद और पीली पगड़ी बांधकर यहाँ के प्रसिद्ध लोकनृत्य ‘थाबल’ पर थिरकते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस पर्व को लोग यहां छह दिन तक मनातें हैं। और अन्तिम दिन इसे श्रीकृष्ण मन्दिर में धूम से मनाकर समाप्त करते हैं। उड़ीसा प्रान्त में श्रीकृष्ण की इस पर्व में पूजा न कर भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को लोग झूलें में रखकर झुलाते हैं।
भारतीयों में यह रंगों का उत्सव सभी राज्यों में किसी न किसी रूप में दिल की उमंग एवं मस्ती का सम्पूर्ण उत्सव माना जाता है परन्तु यदि उत्तर प्रदेश, बिहार एवं मध्य प्रदेश की बात न हो तो यह रंग पर्व अधूरा रह जाता है। उत्तर प्रदेश में इस रंग पर्व के मनाये जाने का अंदाज ही अलग है। मथुरा एवं बरसाने की होली तो अब अंतर्राष्ट्रीय हो गयी है। यहां (बरसाना) में महिलाएं पुरूषों को लट्ठमारकर एवं आपस में रंग डालकर होली मनाती हैं। इसलिए यहां की होली को ‘लट्ठ मार’ होली कहते हैं। बिहार, म0 प्र0 राज्यों में लोग होलिका दहन के अगले दिन शाम के समय सामूहिक रूप से बैंड बाजे एवं ढोल के साथ निकलते हैं और अपने इष्ट मित्रों से मिलकर इसे मनाते हैं। कीचड़ एवं रासायनिक रंगों का प्रयोग करके कुछ विकृत मानसिकता के लोग इस रंग पर्व की महत्वता को कम कर रहे हैं। परन्तु कुछ भी हो इस दिन का वातावरण बड़ा धांसू रहता है और कहीं फाग का गायन होता है तो कहीं लोग लोकगीत गाते हैं। कहीं रास का गायन होता है तो कहीं पर रसिया का नाच-नाचकर लोग अपनी खुसी का इजहार करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश के लोग भले ही अलग-अलग रहन-सहन, तौर-तरीकों में रहते हों, इसके साथ ही उनकी परम्पराओं एवं मान्यताओं में कितना ही ‘मध्यान्तर’ क्यों न हो पर इस रंगपर्व के माध्यम से यह तात्कालिक सन्देश तो जरूर लोगों के जेहन में रहता है, कि इस रंग पर्व में भाईचारा मौजस्ती, उमंग, उल्लाह निहित रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि-
भूल-चूक हो माफ कि भैय्या, ऐसा उड़े गुलाल।
भ्रष्टाचार, आतंकवाद, वैमनस्य जले होली में, देश बने खुशहाल।।
सम्पर्क:
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय
उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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लेखक परिचय –
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
10 मार्च 2009
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - रंगों का पर्व होली: कला के विविध आयाम
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