16 मार्च 2009

आफरीन खांन की दो ग़ज़ल


वो भी क्या दिन थे
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वो भी क्या दिन थे जब, राते छोटी और दिन लम्बे होते थे।
यारों के जमघटे में खुद हँसते, औरों को हँसाया करते थे॥
न फिक्र-ए-मआश1 थी, न ज़िन्दगी की उलझनें थी।
खुली आँखों से खूबसूरत सपने सजाया करते थे॥
सतरंगी माहौल में मुस्कुराहटों के ह़जारों फूल खिलते थे।
दोस्तों के खुलूस से हरसू2 उजाले से रहा करते थे॥
वक्त की गर्द ने हर शय को धुंधला के रख दिया।
वो चेहरें कही खो गए जो कभी नुमायां हुआ करते थे॥
जब भी गुजरते हैं हम इन जानी पहचानी सी राहों से।
खुद से पूछते हैं क्या हम इन्ही राहों में जिया करते थें॥
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1 रोज़ी रोटी की फिक्र 2 हर ओर
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जाने क्यूं
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जाने क्यूं मुझको खुशी रास नहीं आती है,
जब भी मुस्कुराती हूँ आँखे छलक जाती हैं।
यूं तो ऐसा भी कोई ग़म नही है जिन्दगी मे,
फिर क्यूं मुझसे खुशियाँ मुँह छुपाएं फिरती है।
चाहा था के भर लेंगे आस्मान को बाँहों में,
मयस्सर थी जो जमीं वो भी छूटी जाती हैं।
अब तो महफिल में भी तन्हाईयों के साये है,
सारी आवाज़े मुझ तक आते आते खो जाती है।
मुमकिन नही है दिल से अब उसकों भुला देना
साथ हर सांस के उसकी ही खुश्बू आती है।
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आफरीन खांन
राजनीति विज्ञान विभाग
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005
Email- khan_vns@yahoo.com

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा प्रस्तुति रही आफरीन खान की..आभार हम तक लाने का!!