वही इतिहास मे नाम दर्ज कराते हैं
जो इतिहास पढ़ते नहीं
इतिहास बनाते हैं
इतिहास पढ़ना यानि
दूसरो कि बनी लकीरों पर चलना
लकीर सीधी तो सीधी चाल
लकीर टेढी तो टेढी चाल
अपना क्या? बस लकीर पीटना
संस्कृति
लकीरों और इतिहास मे नहीं हैं दर्ज ।
संस्कृति,
बसती मन मे
मिलती हैं कोख मे
और
लोग खोजते हैं संस्कृति को
किताबो मे
शोलोको मे
उद्धरण मे
सांख्यिकी मे
सर्वेक्षण मे
गीता मे
बाइबल मे
कुरान मे
सब कहते हैं
माँ देती हैं संस्कार
जबकि सत्य ये हैं
कि माँ देती हैं संस्कृति
संस्कार और संस्कृति मे
होता हैं फरक बहुत
संस्कृति से संस्कार मिल सकते हैं
पर संस्कार से संस्कृति
ना बनती हैं ना बिगड़ती हैं
नाम इतिहास मे दर्ज करना हैं
तो लकीर एक नयी बनाओ
जिस पर चल कर
अपनी संस्कृति से
अपने संस्कार तक जाओ
5 टिप्पणियां:
रचना जी की इस कविता की प्रशंसा काफी हुई है उनके ब्लोग पर.
अत्यन्त ही जरूरी और प्रभावी अभिव्यक्ति। धन्यवाद रचना जी को ।
बेहद सड़ी हुई और घटिया। Anonymous नहीं हूं ,चाहे तो ई पत्र भेजें।घमंडी और रचनात्मक दुनिया से नितांत बेखबर। ( sk.dumka@gmail.com)-
सुशील कुमार
बेहद सड़ी हुई और घटिया। Anonymous नहीं हूं ,चाहे तो ई पत्र भेजें।घमंडी और रचनात्मक दुनिया से नितांत बेखबर। ( sk.dumka@gmail.com)-
सुशील कुमार
सुशील कुमारsk.dumka@gmail.com
if u need more info on this guy and why he has posted this unsavory comment here see this link
http://mypoeticresponse.blogspot.com/2009/06/blog-post_09.html
अच्छी बातें कहीं हैं रचना जी ने। कहीं-कहीं हल्का सा उलझाव लगता है। अगर अन्यथा न लें तो मैं कहूंगा कि नयी लकीरें भी क्यों बनाएं आखिर ? बनाएं तो ध्यान रखें कि लकीर कहीं लीक न बन जाए! क्योंकि जितनी भी लीकें बनीं शायद लकीरों से ही बनीं।
मामला थोड़ा उलझा हुआ तो है !
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