ज़िन्दगी और मौत
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ज़िन्दगी और मौत मे फक़त
एक पल का फासला होता है
हर सांस आखिरी हो सकती है
इन्सां कुछ भी नही कर सकता है
हर बात का वक्त मुकर्रर होता है
हर काम अपने वक्त पर होता है
इंसान क्या कुछ नही सोचता है
न जाने कितने ख़्वाब सजाता है
नादां नही जानता कि होता वही है
जो उसकी तक़दीर में लिखा होता है
मौत ऐसा एक तूफान है जो संग
अपने सब कुछ बहा ले जाता है
ज़िन्दगी कफ़न मे मुँह छुपाती है
हरसू एक सन्नाटा पसर जाता है
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वक्त
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वक्त से बढ़कर इस जहाँ में
कुछ भी नहीं होता है,
हर रिश्ता, हर मुहब्बत,
हर शय वक्त के हाथो की
कठपुतली होती है।
वक्त अच्छा होता है तो
हर चीज़ मुकम्मल होती है,
सारे रिश्ते, अपने परायें
सब साथ होते है।
हर सुख में हर दुख में
वो कितने करीब होते है,
लगता है जैसे ये नाते
हरदम यूंही साथ निभाएगें,
हर खुशी में, हर ग़म मे
हमारा हौंसला ये बढ़ाएंगे।
और एक रोज़ जब वक्त का
मिजाज़ बदलता है
आसमान की बुलन्दियों से वो
जमीन पर ला पटकता है,
सारे दोस्त अहबाब बदल जाते है,
जो कभी दो ज़िस्म एक जान थे
वो यार बदल जाते है।
जो मुहब्बतो का सौदा करते है
दुनियाँ के बाजार मे सिर्फ
घाटा ही उठाते है,
इस कीमती माल के बदले
आँसू और आहें ही कमाते है।
वक्त के हाथों तन्हाई का
इनाम पाकर बीते हुए वक्त की
यादों को सम्भालते सहेजते हुए
आने वाले वक्त के इन्तेज़ार में
ज़िन्दगी का बचा हुआ
वक्त गुज़ारते चले जाते है।
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आफरीन खांन
राजनीति विज्ञान विभाग
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-२२१००५
Email- khan_vns@yahoo.com
2 टिप्पणियां:
इस कीमती माल के बदले
आँसू और आहें ही कमाते है।
yaqeenan waqt ki har shai gulaam hoti hai..
badhai ho ek achhi nazm padhne ko mili....
shahid "ajnabi"
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
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