31 दिसंबर 2010

बुन्देली कहानी ---- बिरादरी की पूँच

बुन्देली कहानी ---- बिरादरी की पूँच
डॉ0 लखन लाल पाल
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गाँव में पंचातें ऊसई खतम हो गई जैसे काबर माटी को कठिया गोंहूँ। गोंहूँ की किसमन ने कठिया खें अपनेई घर में पराओ बना डारो। रो रओ बिचारौ खेतन के कोने में। का करे तेजी से बदलो जमानौ, कठिया गोंहूँ जमाने के हिसाब सें न बदल सको। ई धरती में तो ओई ठहर पाउत जेमें जितती सक्ति होत। बिना सक्ति बालौ हिरा जात, कुदरत को जेइ नियम है। नये कानून ने जैसें जमीदारी प्रथा खें खतम कर दओ, ओइ के संग में पंचाटें बह गईं। आदमी सूधौ पुलिस अदालत करत। वहाँ मूँ देखौ ब्यौहार नहियाँ। केस फँस गओ तौ सजई को डौल है। फिर नई-जई बूढ़न की मानत कहाँ है। सबखें हुड्डन लगे। कछू नेतागीरी में रम गए। कुल मिला खें पंचाट घर अपने बिगत जीवन की सुरत में टसुआ बहाउत।
गाँव कौ कछू समाज पुरखन की ई पिरथा खें अभऊँ चला रओ। रघुआ ने ई पंचाट में कछू जान डार दई। गाँव भर में एकई सोर है। रघुआ लुगाई कर ल्याओ। कहाँ की आय, कोऊ नईं जानत। स्यात पन्दरा हजार में खरीदी। पाँच हजार रुपइया की छिरियाँ बेंची ती और दस हजार रुपइया पाँच रुपइया सैंकड़ा ब्याज पै उठा खें लै गओ तो और बहू खरीद ल्याओ। बिरादरी बहू की जाति की टोह में है। दुल्हनियाँ कौन जाति की है। कोऊ कहात धोबिन है, कोऊ कहात भंगिन है। रघुआ के सपोटर कहात बभनिया है, रघुआ कहात जाति बिरादरी की है। चहाँ जौन जाति की होबे, बहू साजी है। इकदम ऊँची-पूरी, गोरी नारी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखी झिन्नू सारी में बहुतई अच्छी लगत। गाँव भर की बइरें बहू खें दिखन आउत। पाँच रुपइया, दस रुपइया, मीना बिछिया दैखें मुँ दिखत। रघुआ की बाई बरोबर संग में लगी रहात। खरीदी बहू कोऊ कछू कान में फूँक दे तो पन्दरा हजार तौ गए, बहू अलग से चली जैहै। एक दिना रघुआ की बाई ने बिरादरी की बइरिन खें बुलउआ दिबा खें बुलवा लओ। बहू कौ नाव धराबे खें। गोरी नारी दिखखें बइरिन ने बहू कौ नाव उजयारी धर दओ। रघुआ की बाई ने ई खुसी में सबखें मुठी भर-भर खें बतासा बाँटे। रघुआ कौ बाप चतरा बिरादरी की टोह में लगो रहात, कोऊ का बतात ? हवा कौ रुख कहाँ खें है ? तिवारौ ऊसई लगाएँ खें फिर रओ। पै बिरादरी के घुटे मानुष ऐसें कैसें भेद दैं दैहैं। बिरादरी चुकरिया में गुड़ फोर रई ती। बिरादरी रोटी कैंसे लैहैं, का डाँड़ लगाहै, यौ कोऊ नईं जानत, सिवाय ऊपर वाले के। बिरादरी बालिन ने रघुआ के बाप खें साफ-साफ कह दओ तो कि जबलौ बिरादरी खें रोटी न दै दैहित तब लौ तैं कुजात रैहै, न तोरे घर में कोऊ पानी पी है, न तोखें कोऊ पानी दैहै। चतरा गुस्सा में लाल हो जात्तो पै गुस्सा खें पीबो ओखी मजबूरी हती। पाँव फँसों है, पोले दइयाँ ओखें निकारनै है। खैर कछू होय, रघुआ के दिना आनन्द से गुजरन लगे। दिन भर बिरादरी के आदमी का धौंस देत, रात में सब भूल जात्तो।
चतरा आस-पास के गाँवन में अपनी बिरादरी से मिलो। ओखे मन कौ उत्तर काऊनै न दओ, फिरऊ फुसला पोठ खें अपने कोद खें मिलावे की कोसिस करी। सबनै एकई बात कही कि एक दिना को टिया धर लेव चतरा भइया। अपनी सबई बिरादरी खें जोर लेव। पंच जो निरनै करै ऊ तो माननै परिहै। कथा, भागौत, गंगा अस्नान जो कछू बिरादरी बतावै सो ऊ कर लइए। बिरादरी खैं कच्ची-पक्की रोटी दै दइए, तोरौ उद्धार हो जैहै। जाति गंगा हम सबई खैं पवित्तर कर देत। कोऊ चतरा से कहात-‘सुनो है, बहू साजी है, कहाँ सें फटकार दई।’ बहू की बड़वाई सुन खें चतरा की छाती दो गज फूल जात्ती। तुरत हँस खें बताउत- ‘भइया तुम्हारई चरनन की किरपा है। का करेंन फाल बिगर गओ तो, बिरादरी कौ कोऊ आदमी मोरे लरका के दाँत नईं दिखत तो, बंस तौ चलानै हतो, मैंने कही भइया पइसा लगहै ता लग जाबै, बहू तौ आ जैहै।’ ‘ठीक रहो दादी, बस बिरादरी खें और संभार लै, तोरौ बारे कैसो ब्याव बन जैहै।’
आज बिरादरी की पंचाट हती। बड़े-बड़े पंच आस-पास के गाँवन सें बुलाए गए। इतनौ-कर्रौ मामलौ गाँव कौ समाज अपने मूँड़ पै कैसे लै लेतो। आस-पास के पंचन कौ जमावड़ौ दिखे सें ऐसौ लगत तो जैसे कोऊ पिरतिस्ठित आदमी ई दुनिया से बिदा हो गओ होय और ओखी तेरहईं में लोग इकट्ठे भए हो।
मानुष धरती के सभई पिरानियन सें ईसें सिरेस्ट है कि ओखे पास दिमाग है, सोचे समझे की ताकत है। बिचार कर सकत। सभई पहलुअन खें समझ खें नतीजे पै पहुँच सकत। दो चार आदमी यहाँ बैठे तौ दो चार आदमी वहाँ। बूढ़न कौ सुरौधौ अलग लगो। कोऊ बिड़ी सुरक रओ तौ कोऊ तमाखू की पीक थूक रओ। सिकरिट तौ ऐसे चौखें जात जैसे भदुआ (गन्ना) बात कौ केन्द्र रघुआ और रघुआ की लुगाई हती। जुन रडुआ लरका हते उनै रघुआ से ईरखा होन लगी। जुन की रघुआ के बाप सें तनकई तन्ना-फुसकी हती वे ई घात में हते कि डाँड़ कररौ लगै तौ उनके करेजौ कौ दाह बुझा जावैं। कोऊ पंचाट में जाबे खें तौ तइयार हतो पै रोटी लैबे खें ठनगन करत। बिरादरी की मेहरियन ने खसमन खें जाती-जाती बेरा लौ खूब समझाओं। पुन्ना की बाई नै अपने आदमी सें कही- ‘भलू पुन्ना के नन्ना पाँत में नई जानै, बिरादरी खें साफ बता दइये। खसम ने कान पै नईं धरी तौ वा सन्ना खें बोली - ‘तै भलईं चलो जइये पाँत में, लडुअन कौ भूकौ होत ता, पै मैं जान बाली नहियाँ, ध्यान कर लैत।’
पुन्ना कौ नन्ना बिचारौ बेमौत मरो जा रओ तो। बिड़ी पीवे में ओखौ मन नईं लगत हतो। पंचन की ठसक सहाय कि लुगाई की। अब तौ रामभरोसे है, जो कछू होहै सो भुगती जैहै। पुन्ना कौ नन्ना पुरखन खैं कोस रओ तो कि लुगाइअन खें पंचाट सें बाहर काए राखो। लुगाई जात होतीं ता मैं कभऊँ न आतो, पुन्ना की बाई खें पठै देतो। सबरौ टंटा दूर हो जातो। ईनें सासकेरी नै मोई कुआ बहर कैसी हालत कर दई।
चार आदमी आपस में बता रए ते। एक बोलो- ‘सुनो है स्वसर रघुआ की लुगाई साजी है।’
-‘‘कक्का सिरी देबी सी लगत।’
-‘‘हैं !’’ दूसरे ने मुस्क्या खें आँखीं सिकोरी।
-‘‘सुनो है, धोबिन है।’’ पहलौ वालौ बोलो।
-‘‘ससुरा खें बिरादरी नईं मिली। बिरादरी की बइरें तू गयीं ती का ?’’
-‘‘जाति में आ गई कक्का, पंच धोबिन खें बिरादरी की न बना पाहैं का ?’’
--‘‘जाति गंगा में कूरा-करकट सब कछू मिल जात रे ! अब तौ यौ सब पंचन के हाँतन में है।’’
-‘‘अब का करो जाय कक्का, सुसरा रघुआ लुगायसौ हतो, अक्क लगी न धक्क, साजी दिखखें खरीद ल्याओ। कहात नहियाँ -‘प्यास न देखै धोबी घाट, इसक न देखै जाति कुजात।’ उन्हई में से तीसरौ बोलो।
तीसरे की बात सुन खें दो हँस परे, चौथौ न हँस पाओ। ऊ सोच में पर गओ। ऊ समुझाउत भओ बोलो -‘‘कक्का ई बारे मे सबूत नहियाँ, हम फँस जैहैं।’’ चौथे वाले की बातें सुनखें तीनों के मुँ लटक गए।
अब दूसरी कोद की जमात। खुसर-पुसर मची। इत्ते धीरे सें बोलत कि बात सूधी कान में पहुँचत, यहाँ-वहाँ बरबाद नईं होत।
-‘‘गर्रा गओ है चतरा, अच्छौ पइसा है, मुखिया डाँड़ हिसाब सें लगाइए।’’
-‘‘कित्ती पोपरटी होहै ?’’ मुखिया ने एक आँखी दबाई।
-‘‘अभै नगद पचासक हजार तौ धरे होहै। रघुआ, छिरियाँ राखें, पाँच-छै छिरियाँ अभई बेची ती। पन्दरा सोरा छिरियाँ अभै मौका पैहैं।’’
-‘‘चिन्ता न कर दादी, जैसौ तै चाहहित ऊसई होहै, कौन एक पंचाट निपटाई, हजार निपटा खें फैंक दई। कोऊ नै उँगरिया नईं उठा पाई।’’ मुखिया नै अपनी मूँछन पै हाथ फेरो।
ई जमात के आदमी मुखिया की बात के कायल हो गए। मुखिया नै अपनौ भभका बना लओ। मुखिया नै अभई अच्छे पंच कौ सरटीफिकट दै दओ तो। ऊनै गरब से गरदन हिलाई।
-‘‘दाऊ सेंकें मैकें न सट्टे करे।’’ ओई जमात में एक ठइया बोलो, ऊ कछू साँची बात जानत हतो। ऊसें न रहो गओ, ऊनै कह दओ- ‘‘बहू खरीदें खें दस हजार करजा उठाखें लै गओ तो। कहाँ सें आए पचास हजार कि साठ हजार।’’
दाऊ की बात कटतई दाऊ तिलमिलानों, पै घाघ किसम कौ आदमी बात संभारत भओ बोलो-‘‘अरे तै सिटया गओ का, दस हजार तौ चतरा नै ईसें करजा लए कि सब कोऊ जान जाय फिर भइया बिरादरी डॉड़ मजे को लगावै।’’
-‘‘चतरा की या बदमासी हमाई समझ तरें नई आई। ऐसई हो सकत।’’ ऊ अपनी बात खें वापस लेत भओ बोलो।
अब बिरादरी के लानै पंच बुलउआ भओ। पंचन की बात कौन टार सकत। घर सें तौ पहलईं निकर आये ते। जहाँ-तहाँ बैठ खें रैसल करत हते, अब उठ-उठ खें सब नीम के पेड़ें तरें इकट्ठे हो गए। मैंदान बड़ौ हतो, चारऊ कोद कच्ची माटी की भितिया उठी हती। चतरा नै गाँव भर की जेजमें माँगखें इकट्ठी कर लईं ती, ओई बिछा दई।
ओई मैदान में एक कोद चौतरा बनो हतो। पाँच पंच ओई में जा बैठे। ये पाँचऊ पंच अलग-अलग गाँवन के हते। बिरादरी में खूब नाम कमाओ तो, ओई कौ फायदा उन्हें मिलो कि वे आज पंच बन खें बैठ गये। बोले में चतुर। मूँड़ पै बड़े-बड़े साफा बाँधें, हाथ में तेल लगी हल्की सी लठिया। धोती कुरता के ऊपर सदरी पहरें लगत कि ये पंच है। मुँ पै गंभीरता, हर कोऊ उनके सामूँ बात करै सें दंदकत। पाँचऊ आराम सें चौतरा पै बिछी दरी पै बैठ गए। या दरी पंचन खें इस्पेसल हती। बचे आदमी खाले की जेजमन पै बैठ गए। वे पंच जुन-जुन के कौन्हऊ रिस्ता सें कछू लगत हते, उनके भाव बढ़ गये। एक पंच कुन्टा कौ मामा लगत तो, ओखे पांव अब धरती पै नई रुपत ते। अक्कल सें कछू कच्चौ हतो सो गाँव वाले धत तोरे की कह खें भगा देत ते। आज उन्हईं खें दिखखें ऐसे मुस्क्यात तो जैसें ....................।
पंचन नै आपस में हँरा से कछू बातें करीं। आदमिन के कान ठाड़े भए, पै वा आवाज उनके कान न सुन पाए। एक पंच गम्भीर बानी में बोलो-‘‘चतरा पंच काहे खें बुलाए ?’’ चतरा हाँत जोर खें ठाड़ो हो गओ और बुकरिया सौ मिमयानो- ‘‘मुखिया साब, तुम तौ सब जानत हौ।’’
-‘‘जानत तौ सब कछू है, तैं अपने मुँ सें तौ बता। चार आदमी सुन लैहै।’’ दूसरौ पंच हँसत भओ बोलो।
-‘‘पंचौ, मो लरका रघुआ बहू कर ल्याओ। सामूँ आँखिन कौ लरका है, गल्ती तौ ऊनै करई लई। मैं चाहत हौं कि बिरादरी मोखें सनात कर देबै तौ मैं तर जाऊँ।’’
बिरादरी के सब आदमी सांत बैठे ते। अभै कोऊ नईं बोल रओ तो। पंचन नै बिरादरी कोद दिखों फिर चतरा सें कही-‘‘बिरादरी जाति गंगा कहाउत, वा तौ तोखें सनात करई दैहै, पै यौ तौ बता कि बहू की जाति का है ?’’
मुखिया की बात सुनखें चतरा बंगलें झांकन लगो। ई कौ उत्तर चतरा का बनावै। सो ऊनै चिमाई साध लई।
-‘‘सुनो है धोबिन है।’’ पुन्ना को नन्ना बीच में बोलो।
-‘‘धोबिन कैसें है, बभनियां है।’’ रमोला नै फट्ट से पुन्ना के नन्ना की बात काट दई।
-‘‘पंचौ वा न धोबिन है, न बभनियां है, वा तौ भंगिन है।’’ चतरा कौ समर्थक व्यंग सें बोलो।-‘जाति-बिरादरी होत काहे खें हैं, बिरादरी ऊखें जाति में समगम कर पाहै कि नईं।’’ अब सभई बोलन लगे। इतनौ हल्ला होन लगो कि अब कोऊ काऊ कौ सढ़ौ नईं पर रओ तो ! पंचन नै बात संभारी, वे ठाड़े होखें बोले- ‘‘तुम सब जने चुप्पा हो जाव। ऐसें पंचाट नईं होत।’’ सभई चुप हो गये, पंचन की बात को टार सकत। चतरा हाँत जोड़ें अभऊँ ठाड़ो तो। पंच बोले-‘‘रघुआ खें बुलाऊ।’’ रघुआ वहीं बैटो हतो सो ठाड़ों हो गओ। एक पंच ने पूछो- ‘‘काए भइया, बहू कौन जाति की है ?’’
-‘‘साब बिरादरी की है।’’ रघुआ ने हात जोड़ खें जबाब दै दओ।
-‘‘तोखें कैसें पता कि वा बिरादरी की है ?’’ दूसरौ पंच मूँछन पै हात फेरत भओ बोलो।
-‘‘साब, ओईनै बताओ।’’ रघुआ कछू सरमियानो।
-‘‘कौन ओई नै ?’’ पंच कम नईं ते, सो बात उकेरी। रघुआ न बोलो सो बीच में एक बूढ़ौ बोल परो-‘‘बहू नै बताओ होहै।’’ रघुआ ने मुण्डी हिला दई।
अब बलू सें न रहो गओ। अठारा साल कौ लरका। दाढ़ी मूँछें जमत आउत ती। ओखौ शरीर साजौ हतों, जोसऊ खूब हतो सो खौखरया खें बोलो- ‘‘मोखौं यौ समझ में नई आउत कि पंच जाति पांत काए हुराएँ फिरत है। जाति-पाँति में उरझे रैहौ ता तुम्हारौ कभऊँ विकास नई हो पानै। दुनिया कहाँ पहुँच गई। दूसरी जातियन के आदमी हमें तुम्हें बेसऊर कैहैं। ईंसें जाति-पाँति छोड़ो, भौजाई साजी है। बिरादरी की पूँच लम्बी न बढ़ाऊ।’’
-‘‘बैठ जा रे ! सवाद-उवाद है नहियाँ। पंचाट है, मेहेरिया सें हँसी मजाक नुहै, जब चाहौ कर लेव। तौल खें बात करी जात।’’ उन्हई में सें एक बुड्ढ़ा बिगर परो।
बलु की बात नै आदमिन के करेजे चीर दए। स्यात छाती में तीर घुसे से इतनी पीरा नई होत होहै, जितनी बलु की बातन सें उन्हें पीरा भई। आदमी बिलबिला उठे। कइयक मूड़ पीटन लगे। दूसरे चिल्ला खें बोले-‘‘ अब आदमिन की तू-तू मैं मैं सुरू हो गई। दो पाल्टी बन गई। लोगन खें अब पता चल गओ कि कौन पाल्टी मे को को है। पंचन नै बात संभारी और उन्हें सांत कराउत भए बोले- ‘‘लला, समाज में हमऊँ खें रहनै है और तुम्हऊ खें। काल के दिना अपनौ कोऊ पानी न पीहै।’’
-‘‘बाभन, बनिया तुम्हारौ रोंज पानी पियन आउत का ?’’ बलु उखरई गओ।
बलु की सांची बात आदमिन खें न पची। कोऊ तरकऊ न सूझो, ईसें हँसियन ता हँसियन नईतर पिट हँसियन। कुफर बोले पै बिरादरी नै बलु पै दस सेर गुड़ कौ डाँड़ धर दओ। बलु के बाप खें बिरादरी की समझ हती ईसें ऊनै अपने लरका की भूल की माफी मांगी और रुपइया दैखें दस सेर गुड़ मंगा लओ।
बलु खें ई बात को बौहुत बुरओ लगो। ईसें बलु पाँव फैकत पंचाट से बाहर जान लगो। दाऊ ने बलु खें टेरो और समझाउत भओ बोलो- ‘‘बलु तैं काए बुराई मानत, अभई दिखो नहियाँ दो पाल्टी बनन लगी ती। पंच न रोकते ता थोरीअई देर में गड़िया चूतियां होन लगतो।’’ बलु गुस्सा में फिर खें अपने ठौर पै बैठ गओ।
गुड़ खात भए पंच बोले -‘‘खेत में मेंड़ होत, अगर मेंड़ न होबे ता खेत काहे कौ। पतई न चलै कौन खेत केखौ आय। पुरखा बेसऊर थोरे हते। हमें पुरखन की परपाटी पै तौ चलनई परहै।’’
पाँचऊ पंचन के मूँड़ एक देर फिर इकट्ठे भए। कछू देर तक उनकी आपस में मुण्डी हिली, फिर तनक देर में अलग हो गयीं। अब तीसरे पंच ने आदमिन कोद दिखों और खँखार खें बोलो- ‘अगर सबके मन सें हो जाए तौ बहू खें इतई बुला लओ जाय।’
बढ़ियल, बहुत बढ़ियल, कई आवाजें एकई साथ गूँज गई।
बहू पंचन के सामूँ आकें ठाड़ी हो गई। सबई की नजरें बहू कोद तीं। ओखी चालई से पता चलत तो कि बहू ठसकीली है। झिन्नू साड़ी में ओखौ मूँ झार-झार दिखात तो। चौथौ पंच बोलो-‘‘बहू तोरी जाति का है ?’’
-‘‘जाति बिरादरी की है।’’ बहू हँरा सें बोली। ओखी आवाज कोऊ न सुन सको। पंचाट में बैठो दाऊ जू रसिया हतो, सो ऊ बोलो- ‘‘बहू खूब तान खें बात कर। मूँ उघार लै, इतै सरम न कर। पंच परमेसर के सामूँ का सरम।’’
बहू ने एक झटका में साड़ी माथे तक सरका लई। चौकटा में गाज सी गिरी। दाँतन तरें उँगरिया दाब खें रह गओ आदमी। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखीं, गोरौ खूबसूरत मूँ पंच दिखखें रह गए। बहू मुसकराई और लजात भई बोली-‘‘का पूँछत हौ, पँूछौ, बिरादरी-बिरादरी चिल्लात हौ, का सबई लोग एकई बिरादरी के हौ? गोहूँ की तो किसमें बदल गईं, आदमी की किसमें नई बदली का, जुन मोई जाति बिरादरी पूँछत हो।’’
समाज में खुसर पुसर मच गई। पंच समेत सबई आदमिन खें साँप सौ सूँघ गओ। चोट कर्री हती। सो कछू आपस में बताने-‘‘या तौ घाट-घाट कौ पानी पिएँ है। चारऊ कोद की हवा खाई भई है। ईसें पार न पा पैहौ, जाने का बक ठाड़ी होबै, लुगाई है ईके मूँ कौ का टटा बैड़ों ?’’ दूसरौ बोलो- ‘‘बहू जैसी ठसकीली है, ऊसई ठसकदार बातें है ओखी। मुस्क्या खें कैसौ जबाब दओ।’’
खुस-पुस के बीच में दाऊ टपके -‘‘पंचौ होन दो पंचाट। खेत साजौ है फिर चहाँ बलकट धरो होय चहाँ गहाने और चहाँ मोल खरीदो होय। खेत में बीज अपनौ बओ जै है ता फसल तौ अपनई मानी जै है। बताऊ, सब जने या बात गलत है कि सही।’’
-‘‘या तोर बात बिलकुल सही है दाऊ।’’ पंचाट कौ मुखिया बोलो।
आदमियों और बइयर के बीच बिसात बिछी हती। पुरुष तौ अपने पॉसे फैंक चुके ते। अब बारी उजयारी की हती। जोर अजमाइस होन लगी। उजयारी अकेली मैदान में डट गई। ऊनै अपनौ पॉसों फैंको- ‘‘पंचौ कभऊँ-कभऊँ खेत अपनौ होत, बीज कोऊ को बुब जात, पै फसल तौ खेत बाले की कहाउत। खेत बालौ फसल चपोला दइयाँ धर लेत, ऊ नई काऊ खें बताउत। पंचौ मैं यौ पूँछबो चाहत कि बीज महतपूरन है कि खेत।’’
-‘‘यौ मार दओ, दाऊ वे डरे चित्त। उजयारी नै दाऊ की बात काट दई। अब तौ पंचनऊ खें निकड़ नइयाँ।’’ दो नए लरका हँरा-हँरा फुसफसाए।
पंचन खें पूरी तरा सें लगन लगो कि पंचन की बात हल्की हो गई। ई लुगाई नै तो सबके मूँ बन्द कर दए। बइयर आय ईसें उरझें सार नईं दिखात। हंड़िया होय ता ओखे मूँ पै पारौ धर देबै, ई लुगाई के मूँ पै का ध देन। कुल की होती ता लाज सरम होती, मोल खरीदी। ई चड़वॉक खें रघुआ न जानै कहाँ सें खरीद ल्याओ। सब पंचन खें उजयारी की बाते ततइयाँ सी लगी। अकेलौ बलु खुस हतो। ऊ अपनौ दस सेर गुड़ कौ डाँड़ भूल गओ। उजयारी कोद बलु ने एक देर दिखो। उजयारी की जीत पै बलु मुस्क्यानों। स्यात ऊ मुस्कान को अरथ हतो- ‘‘भौजी मार लओ मैदान, थोरी और डटी रओ, सबरे पीठ दिखाखें भग धरहैं।’’ उजयारिऊ भौजी ऊ मुस्कान कौ अरथ समझी। मुस्कान कौ उत्तर मुस्कान में दओ। ऊ मुस्कान को मतलब हतो- ‘‘लला चिन्ता न करौ, मैं पीठऊ दिखाए पै न इन्हें छोड़हौं। रगेद-रगेद मारिहौं, ढूड़ै गली न मिलहै।’’ उनकौ मुस्कराबो बिरादरी बालन नै दिखो। उन्नै समझो बलु उजयारी खें बढ़ा रओ है। एखी साँस पा गई, अब वा न हट है। वे खौंखरयाने बौहत पै उनकी एकऊ चाल न चली। उन्नै सोची, पंचाट बिगर जैहै। ईसें पुन्ना को नन्ना बोलो-‘‘पंचौ, फैसला होन दो, फालतू बातन में का धरो।’’
पुन्ना के नन्ना की बात सबखें जम गई। पंच फैसला सुनाबे खें तइयार हो गए। चतरा सकपकानो। बिरादरी न जानै कैसौ फैसला सुनाहै। ओखे पेट में भटा से चुरन लगे। पूरौ समाज इकदम सांत हो गओ। चतरा के दिमाग में घंटा सौ बजन लगो। अब पंचन नै मिलखें फैसला सुनाओ- ‘‘रघुआ बहू तौ करई ल्याओ है, ठीक है। पंच रघुआ की बहू नै पूरी बात सुनी। पंचन नै स्वीकार करत है।। चतरा खें बिरादरी में सामिल होने है तौ ईखौ डाँड़ भरनै परिहै। बिरादरी में दस हजार रुपइया जमा करै और कच्ची पक्की रोटी बिरादरी खै खबाबै, ऊखौ तरन तारन हो जैहै। चतरा के डाँड़ न भरे सें ऊ कुजात बनो रैहै।’’ बोल पंच परमेसर की जै। बोलौ संकर भगवान की जै। एक साथ कइयक आवाजन से वातावरन गूँज उठो। पंच चतरा सें बोले- ‘‘पंच फैसला मंजूर है।’’ चतरा कौ सरीर जड़ हो गओ। जैसे सबरे सरीर कौ खून निचोर लओ होय/-‘‘पंचन कौ फैसला मैं नई मानत।’’ उजयारी कड़क खें बोली। ई आवाज खें सबई चौंके। उन्नै तौ बर्रौटन में नई सोचो तो कि उन्हें या आवाज सुननै परिहै। या पहली आवाज आय, ईसें पहलूँ कभऊँ ऐसी आवाज सुनी नईं गई। ओऊ ऐसे ठेठ अन्दाज में। पंचन के कान ताते हो गये। आधे से जादा तिलमिला गए। पंचाट की सरासर बेइज्जती। छाती में घमूसा सौ लगो। पंचन खें ऐसी आसा नई हती कि लुगाई इत्तौ कुफर बोल जैहै। पंचन नै आदेस करो-‘‘सब भइया अपने ठौर पै बैठ जावें।’’ पंच मुखिया बोलो-‘‘बहू तोखें पंच फैसला काए मान्न नहियाँ ?’’
उजयारी अपनी बात पै तिली भर न डिगी। वा बोली- ‘‘दस हजार रुपइया मोरौ आदमी कहाँ से ल्याहै। दस हजार रुपइया जैसें तैसें सूद पै करजा लैकैं डॉड़ भर दैबी ता कच्ची पक्की रोटी में पता है बिरादरी कितने कौ खा जैहै ? तुम मोय आदमी खें और मोसे मजूरी करवाबो चाहत। मोरौ डुकरा (ससुर) येई खटका में मर जैहै। हम कुजात बने रैहै, ऊ हमें मंजूर है। तुम्हारौ फैसला हमें मंजूर नहियाँ।’’ पंच मूँ बा गये। सबरे पंच बिरादरी एक दूसरे कोद मूँ दिखत रह गए। उजयारी झटका सें घूम गई और सूधी घर खें चली गई।


डॉ. लखन लाल पाल
नया रामनगर, अजनारी रोड
कृष्णा धाम के आगे, उरई
जिला-जालौन (उ. प्र.)
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यह कहानी लेखक की प्रथम प्रकाशित कहानी है। यह उरई जालौन से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका स्पंदन के बुन्देली विशेष अंक में प्रकाशित हुई थी।

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बुन्देली कहानी तो पढनी ही होगी. आती हूं दुबारा अभी केवल शुभकामनाएं.
नये वर्ष की असीम-अनन्त शुभकामनाएं.