31 जनवरी 2011
ऐसा मेरा विश्वास है !
अँधेरे को चीरकर ,
आशा की एक बूँद
सूखी धरती को भिगोने ,
मेरी एक चीख
सन्नाटे को फाड़कर ,
आयेगी- आयेगी-आयेगी ,ऐसा मेरा विश्वास है ।
हर निर्दोष को
न्याय मिल सकेगा ;
हर कातिल को
दुष्कर्म का फल मिलेगा ,
हर मासूम
सुख की नींद सो सकेगा ,
ऐसा होगा -ऐसा होगा -ऐसा होगा ,ऐसा मेरा विश्वास है .
30 जनवरी 2011
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव की पुस्तक की समीक्षा --- राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम
राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम
-----------------------------
राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव पुस्तक तेरह अध्यायों में विभाजित है और इसके प्रत्येक अध्याय का विषय इतना व्यापक एवं गम्भीर है कि उसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति कहीं कुछ धुंधलका शेष बचता ही नहीं है। लेखक ने हिन्दी के नये आँकड़ों से अवगत कराते हुये लिखा है कि अपने विशाल शब्द भण्डार, वैज्ञानिकता, शब्दों और भावों के आत्मसात की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में उपयुक्तता एवं विलक्षणता के कारण आज हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल रही है। लगभग 80 करोड़ आमजनों द्वारा विश्व के 176 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है। नव्यतम आँकड़े यह कहते हैं कि विश्व में हिन्दी बोलने वाले अब पहले स्थान पर हो गये हैं।’’ वास्तविकता यह भी है कि वर्तमान में हिन्दी भारत सहित विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक बोली, पढ़ी-लिखी तथा समझी जाती है। यही कारण है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी, चीनी एवं अंग्रेजी को पीछे छोड़ते हुए विश्व की प्रथम भाषा हो गयी है जो सर्वाध्किा आम जनता (अस्सी करोड़ से अधिक) द्वारा स्वेच्छा से बोले जाने वाली भाषा है। लेखक की मान्यता है कि आज हिन्दी भाषा साहित्य लेखन, वाचन तथा गायन आदि के रिवाज से हटकर अब दैनंदिन जीवन से लेकर विज्ञान प्रौद्योगिकी व्यापार-प्रबंधन आदि प्रत्येक क्षेत्र में यह अपनी उपस्थिति दर्शा चुकी है क्योंकि भाषा के इस नव्यतम रूप का युगानुकूल परिवर्तन एवं नवसृजन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है। इसका प्रमुख कारण विश्व स्तर पर बढ़ रहे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक अन्तः सम्बन्धों के कारण वैचारिक स्तर पर एक वैश्विक चेतना का प्रादुर्भाव हो रहा है जिससे समूचे विश्व में हिन्दी भाषा को एक नयी दृष्टि मिल रही है और अन्तर्राष्ट्रीय विचारधाराओं का परिप्रेक्ष्य वर्तमान हिन्दी साहित्य में पूर्णता परिलक्षित हो रहा है।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति और उसके अर्थ से प्रारम्भ हुई यात्रा राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याओं और समाधान पर आकर समाप्त होती है। प्रशंसनीय यह है कि डॉ. वीरेन्द्र ने समाज के उन तमाम सारे क्षेत्रों को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा है तथा उनमें हिन्दी के स्वरूप को परिलक्षित करने का प्रयास किया है जो वर्तमान में किसी न किसी रूप में हिन्दी-भाषा विकास की बात करते दिखते हैं। इन क्षेत्रों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, बैंक, इण्टरनेट, स्वैच्छिक संगठन, संचार माध्यम आदि प्रमुख हैं। इन क्षेत्रो को आधार बनाकर लिखे गये लेखों में हिन्दी की वास्तविक स्थिति को दर्शाया गया है। डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा के वर्तमान स्वरूप एवं उसकी स्थिति को दर्शाने के साथ-साथ उसकी संवैधानिक स्थिति को भी प्रस्तुत किया है। इन लेखों के माध्यम से हिन्दी के प्रति संवैधानिक सोच तथा समय-समय पर गठित होते आयोगों का दृष्टिकोण आसानी से समझा जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक का विवेचन करने पर यह ज्ञात होता है कि हिन्दी अपने विशेष साहित्यिक भण्डार की वजह से लोगों के जादुई आकर्षण का केन्द्र रही है और वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी को नये परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। यहाँ चाहे सूचना प्रौद्योगिकी की बात हो या उत्पाद बेचने की या वोट माँगने की, विज्ञापनों के माध्यम से वस्तु के आत्म प्रचार की या फिल्मों को लोकप्रिय बनाने की या फिर वैज्ञानिक अनुसंधान की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने की, इन सबके लिये हिन्दी अब सर्वमान्य भाषा बन गयी है क्योंकि परिवर्तन के अनुरूप, परिवेश के अनुसार स्वयं को ढालकर अभिव्यक्ति को बहुआयामी रूप प्रदान करने में हिन्दी सदैव सक्षम रही है। तेरह अध्यायों के इस संग्रह के द्वारा डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप, सत्य हमारे सामने उद्घाटित किया है। निःसंदेह यह पुस्तक ज्ञानवर्धक एवं संग्रहणीय है।
---------------------------------------------------
समीक्षक -- डॉ. धनंजय सिंह
पुस्तक: राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव
लेखक: डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक: नमन पब्लिकेशन्स, 4231/1 अंसारी रोड,दरियागंज ,नई दिल्ली.2
मूल्य: रू. 250.00
पृष्ठ : 12+128=140
ISBN % 978-81-8129-234-0
29 जनवरी 2011
ख्वाजा मेरे ख्वाजा...दिल में समा जा !!
28 जनवरी 2011
आदमी क्या है ...
जीवन में हँसना कम अधिक रोना है।
खुशिया मिलती हैं कभी कभी,
संग दुःख लाती तभी तभी।
खुशियाँ आयें या न आयें,
दुःख के पड़ जाते हैं साये।
दुःख अपना प्यारा साथी है,
निरंतर साथ निभाता है।
खुशियाँ बुलाने पर भी न आयें,
दुःख आ जाता है बिन बुलाये।
दुःख में विधि को हम याद करें,
सुख में न इसका ध्यान करें।
जो सुख में इसका ध्यान करें,
तो दुःख हम सब पर कैसे पड़े।
गलती हम करते जाते हैं,
पर स्वीकार न करते कभी।
इस कारण ही तो ऐसा है,
पड़ जाते जल्दी दुःख सभी।
दुखों की परम परंपरा है,
सुख तो एक व्यर्थ अप्सरा है।
दुखों की ही हर पल सोचें,
सुखों का कभी न ध्यान करें.
प्राथमिकता
कुछ कर दिखाने की,
मेरा जूनून
कुछ पाने का ,
मेरी ख्वाहिश
सबको अपनाने की ;
मेरे दिल में कशमाकश
ऊँचा उठ जाने की ,
मुझ में हलचल
उड़ कर दिखाने की ,
मुझमे हिम्मत
नवीन सर्जन करने की ,
''मैं' मनुष्य हूँ !
ये हैं मेरी प्राथमिकताये .
25 जनवरी 2011
23 जनवरी 2011
लघु कथा -फूल
मैं समझ नहीं पा रही.......अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!
22 जनवरी 2011
क्या आज का सच यही है?
"खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं."
क्या जानते हैं कि यूं तो ये मात्र एक शेर है किन्तु चंद शब्दों में ये शेर उन शहीदों के मन की भावना को हमारे सामने खोल का रख देता है .वे जो हमें आजादी की जिंदगी देने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर गए यदि आज हमारे सामने अपने उसी स्वरुप में उपस्थित हो जाएँ तो शायद हम उन्हें एक ओर कर या यूं कहें की ठोकर मार कर आगे निकल जायेंगे,कम से कम मुझे आज की भारतीय जनता को देख ऐसा ही लगता है.आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया जो मुझे इतना कड़वा सच आपके सामने लाना पड़ गया.कल का हिंदी का हिंदुस्तान इसके लिए जिम्मेदार है जिसने अपने अख़बार की बिक्री बढ़ाने के लिए एक ऐसे शीर्षक युक्त समाचार को प्रकाशित किया कि मन विक्षोभ से भर गया.समाचार था "ब्रांड सचिन तेंदुलकर ने महात्मा गाँधी को भी पीछे छोड़ा"ट्रस्ट रिसर्च एड्वयिजरी [टी.आर.ऐ.]द्वारा किये गए सर्वे में भरोसे के मामले में सचिन को ५९ वें स्थान पर रखा गया है और महात्मा गाँधी जी को २३२ वें स्थान पर रखा गया है .सचिन हमारे देश का गौरव हैं.रत्न हैं किन्तु महात्मा गाँधी को पछाड़ना उनके क्या किसी भी भूत,वर्तमान,भविष्य के व्यक्ति के वश में नहीं है.क्या पिता से ऊपर भी कोई हो सकता है?और ये सोचने कि बात है कि क्या महात्मा गाँधी को पिता का दर्जा हमारे भारत देश ने ऐसे ही दे दिया जहाँ सुभाष चंद बोसे जैसे नेता भारत रत्न के लिए आजादी के बहुत वर्षो बाद चुने जाते हैं और जहाँ जनता को देश के लिए कार्य करने वालो के लिए जनता को खुद भारत रत्ना कि सिफारिश करनी पड़ती हो वहाँ महात्मा गाँधी के योगदान कुछ तो होगा जो उन्हें पिता का दर्जा मिला,फिर सचिन से उनका क्या मुकाबला?वे सचिन के समय के नहीं,वे कोई क्रिकेटर नहीं.और जहाँ तक बात है भरोसे की तो ये पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं=
"जब-जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े,
मजदूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े,
हिन्दू व मुसलमान सिख पठान चल पड़े,
कदमो पे तेरे कोटि-कोटि प्राण चल पड़े,"
महात्मा गाँधी से उनकी तुलना का यहाँ कोई मतलब भी नहीं.और इस तरह के सर्वेक्षण की खबर को प्रमुखता देना एक उच्च कोटि के समाचार पत्र के लिए सही नहीं इस लिए उस को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए .जैसे चाहे शुक्ल पक्ष हो या कृष्ण पक्ष सूर्य के प्रकाश पर कोई असर नहीं होता ऐसे ही महात्मा गाँधी के नाम के आगे कोई और नाम हो ही नहीं सकता .इस तरह के सर्वेक्षण बंद होने चाहिए जो जनता के समक्ष गलत बाते रखते हैं .अमिताभ जी से तुलना सही है किन्तु आज जब गाँधी जी हमारे बीच में नहीं हैं तब इस तरह के सर्वेक्षण क्या वास्तव में सही हैं?और क्या सही हैं हम जो भरोसे के विषय में सचिन को महात्मा गाँधी जी से ऊपर रखते हैं .महात्मा गाँधी जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर दिया और खुद कोई फायदा कभी नहीं लिया .हम में से बहुत से लोग उनके सिद्धांतों से मतभेद रख सकते हैं किन्तु जहाँ तक बात है उनके खुद के लिए कुछ करने कि तो शायद एक राय ही होंगे.इसलिए जैसा मैं सोच रही हूँ क्या आप भी इन सर्वेक्षणों के बारे में वही सोच रहे हैं?
मैं तो उनके सम्बन्ध में एक कवि महोदय के शेर को प्रस्तुत कर अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ.किन्तु आप सोचियेगा ज़रूर-
'कैंची से चिरागों की लौ काटने वालो.
सूरज की तपिश को रोक नहीं सकते.
तुम फूल को चुटकी से मसल सकते हो,
पर फूल की khushboo समेत नहीं सकते."
जीवन कर्म
दिल में विश्वास रखो ऊपर वाले के प्रति;
गिरो अगर तो गिरकर संभालो खुद को;
जिन्दगी में जीत फिर तुम्हारी होगी!
ये मत सोचो क्या खो दिया;
रखो आशा कुछ पाने की;
मत रो अपनी विफलता पर ;
लिखो नयी इबारत कामयाबी की!
संघर्षो की राह पर चलकर ;
मंजिल पालो सपनो की;
गम की गर्मी में तपकर ही
मिलेंगी सांसे राहत की!
जीवन कर्म का स्थल है;
आराम यहाँ कहाँ करना है;
निज प्रयास
की क्यारी को खुशियों के फूलो
से भरना है !
21 जनवरी 2011
एक अभिन्न मित्र की कलम से........
20 जनवरी 2011
ऐ...तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है.....!!
देवी नागरानी की ग़ज़ल
ग़ज़ल : १
****************************
बस्तियाँ भी परेशाँ-सी रहती वहाँ
आदमी आदमी से ख़फा है जहाँ
.
मौत की बात तो बाद की बात है
ज़िन्दगी से अभी तक मिली हूँ कहाँ?
.
देर से ही सही दिल समझ तो गया
वक़्त की अहमियत हो रही है जवाँ
.
भीड़ रिश्तों की चारों तरफ़ है लगी
ख़ाली फिर भी है क्यों मेरे दिल का मकाँ?
.
खेलते हैं खुले आम खतरों से जो
हौसलों ही पे उनके टिका है जहाँ
.
दिल के आकाश में देखा जो दूर तक
कहकशाँ से परे भी थी इक कहकशाँ
*************************
ग़ज़लः2
*************************
मौन भाषा को हमारी तर्जुमानी दे गया
एक साकित-से क़लम को फिर रवानी दे गया
.
वलवले पैदा हुए हैं फिर मेरे एहसास में
जाने वाला मुस्करा कर इक निशानी दे गया
.
दाँव पर ईमान और बोली ज़मीरों पर लगी
कोई शातिर शहर को यूँ बेईमानी दे गया
.
डूब कर ही रह गई हूँ आँसुओं की बाढ़ में
ग़म का बादल हर तरफ पानी ही पानी दे गया
.
उसके आने से बढ़ी थीं रौनकें चारों तरफ
जब गया तो वो हमें दर्दे-निहानी दे गया
.
दे गया जुंबिश मिरे सोए हुए जज़्बात को
मुझको ‘देवी’ आज कोई ज़िन्दगानी दे गया
मुम्बई
19 जनवरी 2011
आत्मशक्ति पर विश्वास
राह कितनी भी कुटिल हो ;
हमें चलना है .
हार भी हो जाये तो भी
मुस्कुराना है;
ये जो जीवन मिला है
प्रभु की कृपा से;
इसे अब यूँ ही तो बिताना है.
रोक लेने है आंसू
दबा देना है दिल का दर्द;
हादसों के बीच से
इस तरह निकल आना है;
न मांगना कुछ
और न कुछ खोना है;
निराशा की चादर को
आशा -जल से भिगोना है;
रात कितनी भी बड़ी हो
'सवेरा तो होना है'.
न्याय पथभ्रष्ट हो रहा है....
ये हाल है तो कौन अदालत में जायेगा."
राहत इन्दोरी के ये शब्द और २६ नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट पर किया गया दोषारोपण "कि हाईकोर्ट में सफाई के सख्त कदम उठाने की ज़रुरत है क्योंकि यहाँ कुछ सड़ रहा है."साबित करते हैं कि न्याय भटकने की राह पर चल पड़ा है.इस बात को अब सुप्रीम कोर्ट भी मान रही है कि न्याय के भटकाव ने आम आदमी के विश्वास को हिलाया है वह विश्वास जो सदियों से कायम था कि जीत सच्चाई की होती है पर आज ऐसा नहीं है ,आज जीत दबंगई की है ,दलाली की है .अपराधी बाईज्ज़त बरी हो रहे हैं और न्याय का यह सिद्धांत "कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएँ किन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए"मिटटी में लोट रहा है .स्थिति आज ये हो गयी है कि आज कातिल खुले आकाश के नीचे घूम रहे हैं और क़त्ल हुए आदमी की आत्मा तक को कष्ट दे रहे हैं-खालिद जाहिद के शब्दों में-
"वो हादसा तो हुआ ही नहीं कहीं,
अख़बार की जो शहर में कीमत बढ़ा गया,
सच ये है मेरे क़त्ल में वो भी शरीक था,
जो शख्स मेरी कब्र पे चादर चढ़ा गया."
न्याय का पथभ्रष्ट होना आम आदमी के लिए बहुत ही कष्टदायक हो रहा है.आम आदमी खून के आंसू रो रहा है.निचले स्तर पर भ्रष्टाचार को झेल जब वह उच्च अदालत में भी भ्रष्टाचार को हावी हुआ पाता है तो वह अपने होश खो बैठता है .अपराध कुछ और वह पलट कर कुछ और कर दिया जाता है और अपराधी को बरी होने का मौका कानूनन मिल जाता है.हफ़ीज़ मेरठी के शब्दों में-
"अजीब लोग हैं क्या मुन्सफी की है,
हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है."
आश्चर्य की बात तो यह है कि संविधान द्वारा दिए गए कर्त्तव्य को उच्चतम न्यायालय जितनी मुस्तैदी से निभा रहा है उच्च न्यायालयों में वह श्रद्धा प्रतीत नहीं होतीजबकि संविधान द्वारा लोकतंत्र के आधार स्तम्भ में लोकतंत्र की मर्यादा बनाये रखने के जिम्मेदारी न्यायालयों को सौंपी गयी है और इस तरह उच्च न्यायालयों का भी ये उत्तरदायित्व बनता है कि वे भी उच्चतम न्यायालय की तरह न्याय के संरक्षक बने .उच्च न्यायालय अपनी गरिमा के अनुसार कार्य नहीं कर रहे हैं .कभी कर्णाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिनाकरण का मामला न्याय को ठेस लगाता है तो कभी सुप्रीम कोर्ट की इलाहाबाद हाईकोर्ट में "सडन"की टिपण्णी से सर शर्म से झुक जाता है प्रतीत होता है कि मुज़फ्फर रज्मी के शब्दों में न्याय भी ये कह रहा है-
"टुकड़े-टुकड़े हो गया आइना गिर कर हाथ से,
मेरा चेहरा अनगिनत टुकड़ों में बँटकर रह गया."
17 जनवरी 2011
बिजली विभाग पर मुकदमा!
16 जनवरी 2011
तभी नाम ये रह जायेगा....
जीवन था मेरा बहुत ही सुन्दर,
भरा था सारी खुशियों से घर,
पर ना जाने क्या हो गया
कहाँ से बस गया आकर ये डर.
पहले जीवन जीने का डर,
उस पर खाने-पीने का डर,
पर सबसे बढ़कर जो देखूं मैं
लगा है पीछे मरने का डर.
सब कहते हैं यहाँ पर आकर,
भले ही भटको जाकर दर-दर,
इक दिन सबको जाना ही है
यहाँ पर सर्वस्व छोड़कर.
ये सब कुछतो मैं भी जानूं,
पर मन चाहे मैं ना मानूं,
होता होगा सबके संग ये
मैं तो मौत को और पर टालूँ.
हर कोई है यही सोचता,
मैं हूँ इस जग में अनोखा,
कोई नहीं कर पाया है ये
पर मैं दूंगा मौत को धोखा.
फिर भी देखो प्रिये इस जग में जो भी आया है जायेगा,
इसलिए भले काम तुम कर लो तभी नाम ये रह जायेगा.
15 जनवरी 2011
नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'
नवगीत:
गीत का बनकर / विषय जाड़ा
--संजीव 'सलिल'
*
गीत का बनकरविषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
*
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
*
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
*
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
*
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
*
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
*
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
'सलिल' क्यों
अभिमान करता है?...
******