खट..खट..खट.. दरवाजा खोलो, पुलिस। अचानक हास्टल के कमरा नम्बर बत्तीस पर रात्रि में पुलिस ने छापा मार दिया था। मुखबिर द्वारा पुलिस को सूचना मिली थी कि उस कमरे में शहर के शातिर बदमाश का एक शागिर्द छुपा हुआ है। गहरी निद्रा में तल्लीन राकेश ने कमरे का दरवाजा खोला तो एक पुलिस वाले ने उसकी कनपटी पर रिवाल्वर सटा दी। हिलना नहीं अपनी जगह से.. हैण्ड्स अप। तभी दरोगा जी की कड़कड़ाती आवाज सुनाई दी- 'एक-एक चीज की तलाशी लो।' 'पर सर! मैंने किया क्या है? वाह बच्चू! कितने भोले हो, अभी पता चलता है तुमने क्या किया है, लेकिन सर! मैं तो विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला साधारण छात्र हूँ, कहें तो अपना परिचय-पत्र भी दिखा दूँ। दरोगा ने तमतमाती आवाज में कहा- 'हम तुम्हारा भाषण सुनने के लिए यहाँ नहीं आये हैं और न ही विश्वविद्यालय का परिचय-पत्र इस बात का प्रतीक है कि तुम बहुत शरीफ हो। आजकल विश्वविद्यालय एवं कालेजों में पढ़ने वाले छात्र रातों-रात अमीर बनने के लिए बदमाशों की शागिर्द में जाते हैं और फिर किसी हास्टल में दाखिला लेकर अपने को पढ़ाकू छात्र साबित करने की कोशिश करते हैं।'
सर! इसके कमरे से एक मोबाइल फोन, एक हीरो-होण्डा मोटरसाइकिल के कागजात एवं कुछ ग्रीटिंग्स कार्ड व पत्र मिले हैं जो किसी लड़की ने इसे दिए हैं। उस सर्द सी जमा देने वाली चिचचिलाती ठण्ड में दरोगा ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ राकेश के गाल पर मारा, जिसकी गूँज रात्रि में हास्टल से बाहर तक सुनायी दी। राकेश की आँखों में आँसू आ गए थे। वह बार-बार अपनी बेगुनाही का हवाला दे रहा था कि तभी एक सिपाही की व्यंग्य भरी अवाज उसके कानों में पड़ी-सर! ये तो कवितायें भी लिखता है। फिर अपनी फूहड़ आवाज में जोर-जोर से राकेश द्वारा लिखी गई कविताओं में से एक का पाठ करने लगा। च..च..च.. कितनी बढ़िया कविता लिख लेता है यह। चलो, अब रात को थाने में सन्नाटा तो नहीं पसरेगा, इस भाँड़ की कविताओं का रस लिया जाएगा... पर हाँ तू ये तो बता कि अपनी कविताओं में तुमने व्यवस्था की टांग ही खींची है या कुछ अपनी उस ग्रीटिंग कार्ड वाली गर्ल-फ्रैण्ड के बारे में भी लिखा है कि यौवनावस्था में उभरते हुए उसके उन्नत उरोज, सांसों की धड़कनें, पुष्ट नितम्ब, पतली कमर, मचलकर चलना...... बिहैव योर सेल्फ! राकेश की तमतमाती आवाज गूँज उठी थी- 'आप को किसी को इस तरह जलील करने का कोई अधिकार नहीं है, मैं कोई चोर-उचक्का, बदमाश या लड़कियों का दलाल नहीं हूँ कि आप मुझे इस तरह प्रताड़ित कर रहे हैं। मैं आपके सीनियर्स से आपकी शिकायत करूँगा। कोई भी कानून इस तरह किसी को परेशान करने की इजाजत नहीं देता।' दरोगा ने पलटकर फिर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे मारा और काबू से बाहर होते हुये बोला- 'पुलिस वाले को धौंस देता है कानून की। चल थाने में तुझे हम वहाँ कानून भी पढ़ायेंगे और तेरी कविताओं का नशा भी उतार देंगे। इतनी धाराएं लगाकर जेल में ठूंसूंगा कि मेरा नाम भी दरोगा.... नहीं।'
अगले दिन के अखबारों में प्रमुखता से यह खबर छपी कि- 'अमुक गैंग का एक शातिर बदमाश पुलिस ने अपनी सक्रियता से धर दबोचा। अपने को विश्वविद्यालय का छात्र बताने वाला उक्त बदमाश काल-गर्ल्स रैकेट का शहर में सूत्रधार था और उसके कमरे से तमाम आपत्तिजनक वस्तुयें बरामद हुयी है। यह भी संज्ञान में आया है कि चंद पैसों के लालच में आरोपी बदमाश बड़े-बड़े होटलों एवं अमीर लोगों को जवान लड़कियाँ सप्लाई करता था और प्राप्त पैसे से गुलछर्रे उड़ाता था। सौदेबाजी में प्रयुक्त मोबाइल फोन एवं गर्ल्स हास्टल के आस-पास अक्सर देखी जाने वाली हीरो होण्डा मोटरसाइकिल भी पुलिस ने उस बदमाश के पास से प्राप्त की है।'
राकेश एक मध्यवर्गीय संभ्रान्त परिवार से ताल्लुक रखने वाला एवं डाक्टर-दम्पति का इकलौता बेटा था। बेटे को भी डाक्टर बनाने की खातिर माता-पिता ने उसका दाखिला एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में करा दिया, जहाँ बी. एस. सी. द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत् होने के साथ ही उसने कोचिंग क्लासेज भी ज्वाइन कर ली थीं। आकर्षक व्यक्तित्व का धनी राकेश अपनी विनोदप्रियता, हाजिर जवाबी एवं मधुर वाणी के चलते कक्षा का केन्द्र-बिन्दु बन गया था। इकलौता बेटा होने के कारण माँ-बाप ने उसे मोटरसाइकिल एवं मोबाइल फोन जैसी सारी सुविधायें दे रखी थीं। खुले दिलो-दिमाग वाले राकेश से उसके क्लास की लड़कियाँ भी खुल कर हँसी- मजाक कर लेतीं और उसका शायरना एवं कवि अंदाज तो हर समारोह की जान बन गया था। पर ये सब बातें कक्षा के कुछ छात्रों को अखरने लगी थीं। वे राकेश की जगह अपने को देखना चाहते, पर सफलता हाथ नहीं लगी। राकेश का विनोदी स्वभाव, लड़कियों से खुल कर बातें करना एवं हर समारोह में आगे बढ़कर अपना योगदान देना उन छात्रों को अन्दर ही अन्दर कुढ़ने को मजबूर कर देता था और आखिरकार एक दिन हास्टल में बैठकर उन सभी ने राकेश का कैरियर बर्बाद करने की योजना बना डाली। इस काम में उनका साथ एक छात्र नेता ने दिया जो कि पुलिस हेतु मुखबिरी भी करता था। फिर क्या था रातों-रात पुलिस व कुछ छात्रों की मिलीभगत ने साजिश रचकर एक शरीफ छात्र को काल-गल्र्स रैकेट का सूत्रधार घोषित कर दिया। यहाँ तक कि अखबारों ने भी चटकारे ले-लेकर उसके चरित्र पर कीचड़ उछाला।
राकेश के मम्मी-पापा ने दौड़-धूपकर किसी प्रकार उसकी जमानत करवायी और उसे फिर से अपने कैरियर की ओर उन्मुख करने की चेष्टा की, पर सब बेकार। अदालतों के चक्कर काटते-काटते, कानूनी दांव-पेचों से रोज उलझते एवं पड़ोसियों व रिश्तेदारों की उपेक्षा व व्यंग्य भरी निगाहों ने राकेश के अन्तर्मन में गहरी टीस भर दी। व्यवस्था की विसंगतियों एवं लम्बी कानूनी प्रक्रियाओं ने उसे तोड़ कर रख दिया। उसका पक्ष जानने की बजाय समाज ने उसे ही कटघरे में खड़ा कर दिया। अपने ही कमरे में कैद वह पन्नों पर कुछ लिखता और फिर उन्हें फाड़ कर फेंक देता यहाँ तक कि अपने मम्मी-पापा से भी ज्यादा बातें नहीं करता। मम्मी-पापा ने उसे शादी करने की सलाह दी तो उसे भी उसने ठुकरा दिया।
आखिरकार एक लम्बे समय बाद वह दिन भी आया जबकि राकेश को अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया पर इतनी जलालत के बाद ये सब चीजें उसके लिए बेमानी हो गई थीं। जिस दिन अदालत ने राकेश को सारे आरोपों से मुक्त कर बाइज्जत बरी कर दिया, उस दिन उसके मम्मी-पापा काफी खुश हुए थे। बहुत दिन बाद उनके मायूस चेहरे पर खुशी के भाव दिखे। उस दिन राकेश ने भी रात्रि का भोजन उनके साथ लिया। मम्मी-पापा को भी लगा कि अब राकेश एक नई जिन्दगी की शुरूआत कर सकेगा, पर शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था।
सुबह जब राकेश काफी देर तक नहीं जगा तो किसी अनहोनी की आशंका से मम्मी-पापा ने उसके कमरे का दरवाजा खोला पर सामने का नजारा देखते ही चीख पड़े। सामने राकेश की लाश पड़ी हुयी थी और बगल में जहर की एक खुली शीशी रखी हुई थी। उनकी चीख सुनकर सारे पड़ोसी इकट्ठा हो गये और किसी ने पुलिस को भी इत्तला दे दी। पुलिस आकर लाश के पंचनामे में जुट गई। पुलिस को राकेश के तकिये के नीचे एक कागज मिला था, जिस पर उसने लिखा था कि- 'अदालत ने मुझे दोषमुक्त साबित करके तो अपने कर्तव्य की इत्तिला कर ली, पर मेरे उन सुनहरे दिनों एवं मेरे परिवार वालों की मानसिक प्रताड़ना का क्या कोई अदालत न्याय कर पायेगी? व्यवस्था की सनक ने एक शरीफ छात्र को गुनाहगार घोषित कर दिया.... यहाँ तक मीडिया ने भी बिना कुछ जाने-समझे चटकारे लगा-लगाकर मेरे चरित्र पर तोहमत लगायी। अपने रिश्तेदारों एवम् पड़ोसियों की उपेक्षा व व्यंग्य भरी निगाहों को मैं कैसे भुला सकता हूँ, क्या इन जलालतों का कोई अदालत न्याय कर पायेगी? मैं अभी तक सिर्फ इसलिए जिन्दा था कि अपनी मम्मी-पापा को समाज में निगाहें ऊँची करके चलते देख सकूँ। मैं उनके ऊपर कोई पाप या गुनाह की गठरी छोड़कर नहीं मरना चाहता था। मम्मी-पापा! हो सके तो मुझे माफ कर देना पर मैं ऐसी विसंगतिपूर्ण व्यवस्था में और नहीं जीना चाहता, जहाँ कि मेरा दम घुटता हो। मैंने अपनी जिन्दगी के लम्हे जी लिए और अब भारमुक्त होकर स्वेच्छा से मौत को गले लगा रहा हूँ... अलविदा।'
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कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा,
वरिष्ठ डाक अधीक्षक,
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
e-mail- kkyadav।y@rediffmail.com
13 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर कहानी. एक सच को उकेरती कहानी. के.के. जी को बधाई.
बहुत खूब...एक लम्बे समय बाद इतनी जीवंत कहानी पढने को मिली. कृष्ण जी को साधुवाद.
शब्दकार में के.के. जी की कहानी पहली बार पढ़ रहा हूँ. पहली नजर में ही प्रभावित करती है यह कहानी.
समकालीन समय और समाज से जुड़ाव कहानीकार के लिए अनिवार्य है, इस कहानी में कृष्ण कुमार जी ने वर्तमान समाज और परिवेश की परिस्थितियों को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
शरीफ बदमाश के बहाने युवाओं के भटकाव और व्यवस्था पर चोट करती एक मार्मिक कहानी.
कृष्ण कुमार जी को शब्दकार पर पढ़कर अच्छा लगा.
इस कहानी के माध्यम से कृष्ण कुमार जी ने जो सन्देश दिया हैं उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है.
प्रस्तुति का अंदाज प्रभावी और कहानीपन में जान है।
‘‘शरीफ बदमाश ‘‘ कहानी में शब्दों की मारक क्षमता पाठकों के हृदय को झकझोर देने के लिए पर्याप्त है। अनेक स्तरों को समेट सकने वाले वाक्यों में गुणीभूत व्यंग्य की तीखी धार है। यह अद्भुत है और व्यक्त न होने वाली संवेदनाओं को यहाँ संभव बना गई है।
कहानीकार के अन्तर्मन की वेदना और संवदेनशील वैचारिक शैली ने तेजी से प्रगति करते समाज और जीवन की हकीकत को कहानी रूप में परोसा है। एक कटु सत्य को धार देने के लिए कृष्ण कुमार जी बधाई के पात्र हैं.
kahte hain dil se nikli baat dil tak jati hai, aapki is kahani me bhi aisa kuchh hai jo logon e dilon tak asar kar raha hai. bahut bahut badhai.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ढेरों शुभकामनायें !!
आपकी कहानी निकम्मी पुलिस, संवेदनाहीन समाज और बेसुध प्रशासन पर उचित व्यंग है और कानून तथा व्यवस्था को मानने वाले भले लोगों की दुर्दशा को इगित करता है। धन्यवाद क़ृष्ण कुमार जी
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