04 जुलाई 2009

सुधा भार्गव की कवितायें - "माँ को समर्पित"



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1 पुल
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माँ तुम तो एक पुल थीं
जिसके नीचे से
क्रुद्ध नदी भी बहती थी
शांत भाव से .
अब तो हर बाँध
तरंगिनी की तरंगों में
हो जाता है धराशाही
पुल बनने का रहस्य माँ
मुझको ही दे जाती
विरासत में
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२.एक बार फिर
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घर को व्यवस्थित करते हुए
मुझे मिला
पीतल का एक कटोरदान
न बन सकी उसकी कद्रदान
पुराने फैशन का समझकर
नाक भौं सकोड़कर
पीछे सरका दिया था
पता न था एक दिन
यही हो जाएगा
मेरे लिए वरदान .
बहुत देर तक
उसे थामे रहे हाथ
छोड़ने को न थे तैयार
उसका साथ
फिसलती उँगलियाँ
ढूंढने की कोशिश में थीं
शायद माँ के हाथों की छाप
जो तोड़ गयी थी रिश्ता
बिना कहे कोई बात
अचानक पैदा हुई एक थाप
मोह भरा संगीत भरा नाद
मोह से उपजी सिहरन
सिहरन से थी
अंग अंग में थिरकन
उसकी गूँज में
मैं खो गयी
आभास हुआ -
वह मेरे कंधे को छू रही है
बालों में उंगलियाँ घुमा रही है
आर्शीवाद की धूरी पर
मंत्र फुसफुसा रही है
उसने बड़े प्यार से
अपने हाथों को बढ़ाया
लड्डुओं का कटोरदान
मुझे धीरे से थमाया
अल्हड़ बालिका सी मुस्कुराकर
मैंने सीने से उसे लगाया
पल भर की छुअन में
मैं रम गयी
एक बार फिर
अनाथ से सनाथ हो गई
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३ दूसरा गाँव
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माँ, तू एक बार
फिर से याद आ गई
कमरे की ओर बढ़ चले
मेरे कदम.
सोचा -तू न सही तेरा कमरा सही
तुझे आवाज दूंगी
तुझसे टकराएगी
और लौटकर आयेगी मेरे पास
वात्सल्य के कतरों में डूबी सी .
देहली पर रखा ही था पैर
की उग आईं भ्रम की कोंपलें
भूगोल का भूगोल बदला लगा
जहाँ चप्पलें रखी रहती थीं
वहां थे जूते
जहाँ तेरी दवाएँ थीं
वहां थे मोबाईल
जहाँ तेरी साडियां टँगी थीं
वहां थीं पेंट -कमीज
छाती में एक घूंसा लगा
आंसुओं के रास्ते बह निकला
एक अनकहा दर्द .
तभी सुनाई दिया
अब यह बच्चों का कमरा है
एक -एक सामान हटा दिया है
कुछ बाँटा कुछ रख दिया है
निगाहों से बहुत दूर
उनको देखकर
ताजी हो जाती थीं यादें .
महसूस हुआ-
बड़े इत्मिनान से
दीवारों से खुरच दिया है
तेरा नाम ,
यहाँ अब न मेरी धरती है
और न ही आसमान
भूलकर आ पहुँची हूँ
दूसरे गाँव ..
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सुधा भार्गव
जे -703 इस्प्रिंग फील्ड,
#17/20, अम्बालीपुरा विलेज,
बेलेंदुर गेट, सरजापुर रोड,
बंगलौर-560102

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