आखिर किसको बदलना चाहते हैं आप ??
अभी-अभी एक मित्र के घर से चला आ रहा हूँ,अवसर था उसके दादाजी की मृत्यु पर घर पर बैठकी का...और इस संवेदनशील अवसर पर उस मित्र से जो कहा गया,उस पर सोच-सोच कर अचंभित-व्यथित और क्रोधित हुआ जा रहा हूँ,मेरे उस मित्र ने प्रेम विवाह किया है,जिसे उसके घर वालों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया,हालांकि मित्र अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के घर यानी कि अपने ही घर में रहता है,मगर पत्नी के घरवालों को इस घर द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया है और अब जब मित्र के दादाजी की मृत्यु हुई है और उसके ससुराल वाले बैठकी पर उपस्थित हुए तो उनके चले जाने के बाद मित्र के घरवालों द्वारा मित्र को यह कहा गया कि अपने ससुरालवालों से यह कह दे कि आज भर आ गए सो आ गए मगर अब टीके-पगड़ी की रस्म के वक्त वो टीका लेकर ना उपस्थित हों जाएँ.....और तब से मेरा मन बड़ा विचलित है.....कारण कि इतनी तेजी से बदलती दुनिया में आज भी एक अदना सा इंसान किसी दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझता...तरह- तरह के अभिमानों से भरा यह इंसान अपने तरह-तरह के गुट बनाए हुए अपने उस गुट में पूरी तरह रमा हुआ अपनी उस दुनिया में पूरी तरह डूबा हुआ रहता है...और उससे इत्तर दुनिया से उसे कोई मतलब नहीं होता और तो और वह किसी और की कोई परवाह तक नहीं करता....अपने अभिमान,अपनी ठसक,अपना पैसा और अपना समाज बस यहीं तक उसे सब कुछ ठीक लगता है और इसके पार सब कुछ एक मजाक...बल्कि हीन....बल्कि कुरूप....बल्कि घृणा से भरा हुआ.....बल्कि उस पर थूक देने लायक.....यहाँ दूसरे को सम्मान देना तो दूर एक मिनिमम कटसी भी मेंटेन नहीं रखी जा सकती.....और हम हमेशा समाज को बदलने की बात करते हैं....!!
अभी-अभी एक मित्र के घर से चला आ रहा हूँ,अवसर था उसके दादाजी की मृत्यु पर घर पर बैठकी का...और इस संवेदनशील अवसर पर उस मित्र से जो कहा गया,उस पर सोच-सोच कर अचंभित-व्यथित और क्रोधित हुआ जा रहा हूँ,मेरे उस मित्र ने प्रेम विवाह किया है,जिसे उसके घर वालों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया,हालांकि मित्र अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के घर यानी कि अपने ही घर में रहता है,मगर पत्नी के घरवालों को इस घर द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया है और अब जब मित्र के दादाजी की मृत्यु हुई है और उसके ससुराल वाले बैठकी पर उपस्थित हुए तो उनके चले जाने के बाद मित्र के घरवालों द्वारा मित्र को यह कहा गया कि अपने ससुरालवालों से यह कह दे कि आज भर आ गए सो आ गए मगर अब टीके-पगड़ी की रस्म के वक्त वो टीका लेकर ना उपस्थित हों जाएँ.....और तब से मेरा मन बड़ा विचलित है.....कारण कि इतनी तेजी से बदलती दुनिया में आज भी एक अदना सा इंसान किसी दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझता...तरह- तरह के अभिमानों से भरा यह इंसान अपने तरह-तरह के गुट बनाए हुए अपने उस गुट में पूरी तरह रमा हुआ अपनी उस दुनिया में पूरी तरह डूबा हुआ रहता है...और उससे इत्तर दुनिया से उसे कोई मतलब नहीं होता और तो और वह किसी और की कोई परवाह तक नहीं करता....अपने अभिमान,अपनी ठसक,अपना पैसा और अपना समाज बस यहीं तक उसे सब कुछ ठीक लगता है और इसके पार सब कुछ एक मजाक...बल्कि हीन....बल्कि कुरूप....बल्कि घृणा से भरा हुआ.....बल्कि उस पर थूक देने लायक.....यहाँ दूसरे को सम्मान देना तो दूर एक मिनिमम कटसी भी मेंटेन नहीं रखी जा सकती.....और हम हमेशा समाज को बदलने की बात करते हैं....!!
आखिर किस समाज को बदलना चाहते हैं हम और आप....यहाँ जहां तरह-तरह की घृणा और वैमनस्य भरा हुआ है....हम हमेशा राजनैतिक भ्रष्टाचार को गालियाँ दिया करते हैं...,मगर हम अपने खुद के बीच जो तरह-तरह की सामाजिक विसंगतियां....अंधविश्वास...अविश्वास....वहम.....गलतफहमियाँ और पता नहीं किन-किन बेवजह की बातों पर किन-किन से बेवजह घृणा का एक अंतहीन सैलाब अपने-अपने मन में ना सिर्फ पाले बैठे हैं....बल्कि उसे दिन पर दिन पाल-पोष कर और भी बढाए चले जाते हैं,उसका क्या ??किसी दूसरे की बात तो क्या करें हम... अपने किसी गरीब या कमतर-कमजोर या कम बुद्धि वाले किसी रिश्तेदार के साथ कैसा सुलूक होता है हमारा...क्या हम उसके साथ दो भात का व्यवहार नहीं करते....क्या उसके साथ का देन-लेन उसकी हैसियत देखकर नहीं करते....क्या उसका माथा देखकर उसे तिलक नहीं करते....अपने इस आचरण को हम भला कब देख पाते हैं....क्या जिन्दगी भर हम अपना खुद का यह चरित्रहीन आचरण देख भी पाते हैं....??उसे सुधारना तो बहुत दूर की बात है......!!!
दोस्तों हो सकता है कि हमने अपने समूचे जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं चाहा हो....और ना ही अपने जानते किसी का बुरा किया भी हो....और यहाँ तक कि हम मुक्त हस्त से दान भी देते आयें हों...और किसी की गरीबी पर हमारी आँख भी भर आयीं हों....और हमने बेशक तब उसके भले के लिए बहुत कुछ किया हो.....यानी कि समूचे जीवन हमने अच्छा-ही-अच्छा काम किया हो,जिससे हमें सदा बडाई-ही-बडाई ही मिली हों.....और यहाँ तक कि हमने सदा साधू-संतों का सत्संग ही किया हो.....मगर अपने ही परिवार में किसी-ना-किसी प्रकार की गलतफहमियाँ पाल कर किसी अपने ही खून के साथ,या किसी भी अन्य के साथ कोई अन्याय नहीं किया....??....कभी शांतचित्त से सोचकर देखें दोस्तों तो हम पायेंगे कि हाँ हमने ऐसा किया है....और दोस्तों सच बताऊँ....हमारे सब अच्छा कर्म करने के बावजूद हो सकता है.....कि हमारे सारे पुण्य हमारे द्वारा किये गए इन अनजाने पापों द्वारा कट गए हों....अगर अगर हम कभी भी एक बार भी इस तरह से सोच पायें....तो हो सकता है कि कि हम अपने कुछ पापों को त्याग पायें....वरना किसी को गालियाँ देना उतना ही बेकार है....जितना कि किसी भैंस के आगे बीन बजाना.....और सच बताऊँ तो ऐसा कोई कर्म या व्यवहार करने के बाद हम किसी भी समाज,सत्ता,राजनीति या किसी को गालियाँ बकने के हकदार भी नहीं रह जाते....बाकी हमारी मर्जी है,हम चाहे जो करें....हम रसूखवाले लोगों को टोकने वाला भला है ही कौन....सिवाय हमारी आत्मा के....अगर हम उस आत्मा की किसी भी किस्म की आवाज़ को सुनने में सक्षम नहीं....तो मैं आपसे....हम सबसे यही पूछ कर अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा कि आखिर किसको बदलना चाहते हैं.....हम....और आप.....!!!!!
3 टिप्पणियां:
bahut kuchh sochne ko majboor karta aapka lekh .shayad sabse pahle hume khud ko hi badalna hoga .
सार्थक और विचारणीय आलेख। अगर सब खुद को ही बदलने का प्रण कर लें तो शायद कुछ बदलाव आयेगा। कहने सुनने से कुछ नही होने वाला। शुभकामनायें।
हम किसी की आलोचना करके कुछ भी नहीं पा सकते हैं, सबकी अपनी अपनी सोच है. अगर बदलने की कोशिश करें तो खुद को ही बदलें. न हमें किसी में बुराई देख कर कोसने या वंचना करने का भाव रहे और न ही किसी को अपना मार्ग बदलने का उपदेश देने की इच्छा . अपनी सोच बदल कर हम अगर कुछ सन्देश दे सकते हैं तो वह सबसे बेहतर है.
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