13 जुलाई 2009

डॉ0 अनिल चड्डा की कविता - "भिज्ञ-अनभिज्ञ"




कौन हूं? क्या हूं ??
कुछ ज्ञात नहीं
अज्ञात नाम ???
शायद अपना नहीं
जोड दिया गया है
मेरे साथ
कहीं से उठा कर
या फ़िर चुरा कर
अनजाना अस्तित्व,
वस्तुत:स्थापना नहीं
पर पाऊं कहां
स्वत्व अपना -
खोजता फिरता हूं
यहां,वहां,जहां,तहां!
लगता है
कहां - कहां से
बीत जायेगा जीवन
आजीवन खोजता ही रहूंगा
अस्तित्व अपना
बोध होगा
अपनत्व मेरी रिक्ति का
दुनिया को जब,
तब मैं न होऊंगा
होगा मेरा अस्तित्व -
पर मैं अनभिज्ञ ही रहूंगा!!

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डा0अनिल चड्डा
http://anilchadah.blogspot.com
http://anubhutiyan.blogspot.com

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डॉ० अनिल चड्डा का परिचय यहाँ देखें

1 टिप्पणी:

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

बोध होगा
अपनत्व मेरी रिक्ति का
दुनिया को जब,
तब मैं न होऊंगा
होगा मेरा अस्तित्व -
पर मैं अनभिज्ञ ही रहूंगा!!

आपका शब्द कोष व्यापक है,
अतिसुन्दर अभिव्यक्ति...
भावः मन में उतरते चले गए..