सत्य अहिंसा परमोधर्मा की नीति पर चलने वाले देश में जहाँ वर्ग भेद के आधार पर हिंसा की जाये, इससे दुःखद एवं जघन्य अपराध कुछ नहीं हो सकता! जहाँ अर्द्ध नारीश्वर के रूप में पूजी जाने वाली महिलाओं पर जब अर्द्धमानव हिंसक व्यवहार करता है, तब अन्य समाजों से हम श्रेष्ठ होने का दावा एवं दम्भ भरने का नाटक क्यों करते हैं, डब्ल्यू यंग का मानना है कि बलात्कार एक ऐसा अनुभव है, जो पीड़िता के जीवन की बुनियाद को हिला देता है। बहुत सी स्त्रियों के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत सम्बधों की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करता है, व्यवहार और मूल्यों को बदल आंतक पैदा करता है।आज सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा (बलात्कार) की घटनाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। अध्ययन एवं सर्वेक्षण इस बात के प्रबल साक्षी हैं कि भारत में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संख्या में तेजी के साथ बढ़ रही हैं। हमारी सामाजिक संरचना की कमजोरी कहें या बाहरी डर जिसके कारण महिलाएं अपने ऊपर होने वाले हिंसक व्यवहार (बलात्कार) या अपराधों को पारिवारिक और सामाजिक मर्यादा के कारण चुपचाप सह लेती हैं और इसे सगे सम्बन्धि तक से छिपा जाती हैं इसके साथ ही झिझक, लाज-शर्म, भय के कारण, महिला-उत्पीड़न की कुछ घटनाऐं थाने में दर्ज नहीं की जातीं , कोर्ट में न्याय की देरी, संरक्षकों की बदनामी के वजह से आपस में समझा बुझाकर या ले-देकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है। धर्म युग 1 दिसम्बर 1992 में सुर्दशना द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि यदि सूरज पर राहु ग्रहण लगाता है तो कुछ देर बाद वे मुक्त हो जाते हैं पर बलात्कार का राहु यदि किसी नारी के जीवन पर ग्रहण लगा ले तो ऐसी लंबी काली अंधकार की त्रासद चादर उसे घेरती है जिससे ता उम्र वह निकल नहीं पाती । उसका तन लुटता है, उसका मन छटपटाता है, मगर समाज के किसी कोने से उसके लिए सहानुभूति, सम्मान और प्यार के दो बोल नहीं निकलते। बात फुसफुसाहटों और चेमेगोइयों का केन्द्र बन जाती है। कसूर किसी का और सजा कोई भुगते, ऐसा अन्याय बलात्कार के अलावा किसी अपराध में नहीं होता और सबसे अजीब बात यह है कि कालिख बलात्कारी के बजाय उस नारी के माथे पर लग जाती है। उसकी ही नहीं उसमें पूरे परिवार की प्रतिष्ठा इस जघन्य दुष्कृत्य के परिणाम स्वरूप धूलधूसरित हो जाती है, इतनी कि उसके अपने भी क्षुब्ध होकर बोल उठते है; कल मुँही तू मर क्यों नहीं गई ; मौत तो सिर्फ शरीर की होती है, बलात्कार तो अस्मिता को भी चूर-चूर कर देता है और आत्मसम्मान को भी!
बलात्कारों में वृद्धि के कारण-
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो बलात्कारों में वृद्धि की घटनाओं के पीछे हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति, संस्कार के साथ-साथ पाशविक मनोवृत्ति और लगातार बढ़ रहे नगरीकरण, औद्योगीकरण तथा भूमण्डलीकरण प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। इसके साथ ही संचार माध्यमों में बढ़ते सेक्स और हिंसा का प्रदर्शन, अश्लील यौन साहित्य, फिल्म, वीडियो आदि का प्रदर्शन बलात्कार की घटनाओं को अंजाम देने में प्रमुख भूमिका एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। जब हमारा समाज स्वदेशी-विदेशी फिल्मों में पुरूष-महिला के अंतरंग प्रेम सम्बधों को पर्दे पर देखता है तब उसी का अनुसरण करने में ऐसे लोग अपने जीवन में उतारने में जरा भी संकोच नहीं करते अर्थात् कुछ हद तक मीडिया ने बलात्कार को अर्थात् नारी देह को मुक्त रूप से भोगने को व्यापक सामाजिक स्वीकृति दे दी है। इसे एक मनोवैज्ञानिक एवं मानवोचित कमजोरी कहें तो जायज है कि जिसे फिल्मों में देखने में ऐतराज नहीं है, उसे यथार्थ में भी उतारने में झिझक नहीं रह जाती है। जहाँ एक ओर फिल्मों में उत्तेजक यौन हरकतें, विज्ञापनों में नारी केवल मौज-मस्ती का साधन, उत्तेजित करने वाली और कामुक अदाओं से लुभाने वाली नजर आती हैं वहीं दूसरी ओर अक्षत योनि की आदिम आकाँक्षा और विक्षिप्त यौन कुण्ठाएं भी बलात्कार को बढ़ावा देती हैं।
महिलाओं के विरूद्ध बलात्कार की प्रमुख मनोवैज्ञानिक प्रकृति एवं उद्देश्य निम्न हैं-कामवासना, आपराधिक मानसिकता, पुरूषों के झूठे अहम का वहम, हीनभावना का शिकार एवं अवसाद ग्रस्तता मानसिक रूप से कमजोर अथवा मनोरोगी, शंकालु स्वभाव के व्यक्ति ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। इन बलात्कार की घटनाओं को अंजाम देने वाले अक्सर पंडित, पुरोहित, पुजारी, नजदीकी रिश्तेदार, दोस्त या परिचित होते हैं। वकील, मालिक, अड़ोसी-पड़ोसी, सौतेले ,पिता, भाई, चाचा, मामा, नाना, ताऊ वगैरह के द्वारा भी बलात्कारों की संख्या में निंरतर वृद्धि हो रही है। खुले समाजों में भी ऐसे बलात्कार बढ़ रहें हैं, जो स्त्री पर तरह-तरह के अप्रत्यक्ष दबाव डालकर किए जाते हैं। पद, पैसे और कैरियर का प्रलोभन अक्सर स्त्रियों की सहमति पाना आसान कर देता है। अर्थात् अपना ही घर आज बहू- बेटियों के लिए हिंसा और वध स्थल बनता जा रहा है।
बलात्कार की इन घटनाओं के पीछे हमारे सामाजिक ढ़ांचे में कुछ मर्यादित कमजोरियों के साथ-साथ, पुलिस कार्यवाही में ढीला-ढाली एवं राजनीतिक दबाव, न्याय व्यवस्था का दोषी, विशेषकर न्यायालय में पीड़ित महिला से उल्टे सीधे सवाल-जबाव क्योंकि जिस अभागिन के साथ बलात्कार होता है, वह कौमार्य अथवा सतीत्व भंग की क्षति ही नहीं सहती, गहन भावनात्मक दंश, मानसिक वेदना, भय, असुरक्षा और अविश्वास प्रायः आजीवन उसका पिण्ड नहीं छोड़ते। ऐसी महिलाएं अपना दुःखड़ा अंतरंग-से-अंतरंग के समक्ष भी रो नहीं पातीं! वक्त के साथ उनका एकांकीपन भी बढ.ता जाता है और जीवन का बोझ भी, जबकि बलात्कारी पीड़ित महिला के साथ-साथ अक्सर न्याय व्यवस्था का भी शीलभंग करने में सफल हो जाता है। और दोनों में से कोई भी उसका बाल तक बांका नहीं कर पाता। शायद इसके पीछे मुख्य कारण यह रहता है कि बलात्कार के मुकदमों में अधिकाँश अभियुक्त पैसे के बल पर योग्य वकील ढूढ़ता है, जो उसे कानूनी शिकंजे से निकाल ले जाने का कोई-न-कोई रास्ता खोज ही निकालता है क्योंकि न्याय और कानून में बच निकलने के तमाम रास्ते वाकायदा मौजूद हैं। न्याय और कानून की इस प्रक्रिया में महिलाओं को अपने साथ हुए बलात्कार की इन घटनाओं को छुपा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ती । यही कारण है कि सरकारी आंकड़ों में वह तस्वीर (बलात्कार) ही नहीं आ पा रही है जो आनी चाहिए क्योंकि बलात्कार की शिकार हुई महिला चुप्पी साधने में ही अपना हित समझती है और शायद यही कारण है कि बलात्कार की शिकार हुई महिलाओं की यही चुप्पी बलात्कारियों के दुस्साहस को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रही है। अरविन्द्र जैन का मानना है इधर पिछले कुछ सालों में छोटी उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले लगातार बढ़े हैं जो निश्चित रूप से भयावह और चिंताजनक हैं। समाचार पत्रों में आये दिन ऐसे समाचार; समाज में बढ़ रही भयंकर मानसिक बीमारी का प्रमाण हैं। गुड़ियों के संग खेलने की उम्र में बच्चों के साथ बलात्कार जैसे घृणित और संगीन अपराध बढ़ रहे हैं। बच्चों से बलात्कार घृणित जघन्यतम अपराध है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे कि वयस्क महिलाओं से बलात्कार कम घृणित है। बच्चों से बलात्कार में बढोत्तरी का एक कारण यह भी है कि युवा लड़कियाँ, बच्चियों की अपेक्षा अधिक विरोध कर सकती हैं, चीख सकती हैं और शिकायत कर सकती हैं। बलात्कारी पुरूष सोचता है बच्चे बेचारे क्या कर लेगें? विशेषकर जब बलात्कार घर में पिता, भाई, चाचा, ताऊ या अन्य रिश्तेदारों द्वारा किया गया हो। निर्धन परिवारों की कम उम्र की बच्चि के साथ बलात्कार की घटनाएं अधिक होती हैं लेकिन अब मध्यम और उच्चवर्ग में भी बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि नाबालिग बच्चों द्वारा कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले भी लगातार बढ रहे हैं। फिल्मों, टी0वी0 और पत्र-पत्रिकाओं में बढती नग्नता और सेक्स व हिंसा का अस्त्र किशोरों में तेजी से बढ़ रहा हैं। दूसरी तरफ एक सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश बलात्कारी कानून के किसी-न-किसी चोर-दरवाजे से भाग निकलते हैं। अक्सर देखा गया है कि अभियुक्त सारा अपराध पीड़िता के सिर मढ़ देता है और कहता है कि जो कुछ हुआ उसकी मर्जी अथवा सहमति से हुआ। अपने बचाव के लिए वह प्रत्यारोप तक लगा देता है कि पीड़ित संभोग की आदी थी या बदचलन थी। परिणाम यह होता है कि तर्क हर बार जीत जाता है और पीड़ा हार जाती है।
उबाऊ, थकाऊ और घर-बिकाऊ न्याय व्यवस्था में गरीब आदमी को महसूस होने लगा है कि इतनी इज्जत तो तब भी खराब नहीं हुई थी जब उसकी बहू-बेटी के साथ बलात्कार हुआ जितनी अब यहाँ इन कोर्ट-कचहरियों में उसकी हो जाती है। वास्तव में बलात्कार से अधिक बलात्कार होने का एहसास तब होता है जब मुकदमों के दौरान भरी कचहरी में विरोधी वकीलों के तर्कों का जबाब देना पड़ता है। ऐसी हालत में खुद बलात्कार की शिकार महिला हो या गवाह; दोनों टूट जाते हैं।बलात्कारी रिहा होने के बाद मूछों पर ताव देकर शान से घूमता है और आंतकित बूढ़े गरीब बाप को डूब मरने के लिए कुआं-बावड़ी तक नहीं, क्योंकि डर लगता है कि कहीं बच गया तो आत्महत्या करने के प्रयास के अपराध में उसे ही जेल भेज दिया जाएगा ।
वर्तमान की बात करें तो आज सामाजिक-आर्थिक विषमता के परिवेश में साधन सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा भी कमजोर वर्ग की महिलाओं पर बलात्कार के मामले निरन्तर बढ़ रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले अपराधों में पुलिस की भूमिका कम संदिग्ध नहीं होती क्योंकि उन पर हाथ डालने पर पुलिस पर राजनीतिक दबाव भी पड़ सकता है।
बलात्कार रोकने के समाधन-सुसन बाउन मिलर (अगेंस्ट आवर बिलः मैन, विमेन एण्ड रेप, 1975) का यह कहना सही है कि बलात्कार अपराध नहीं है; बल्कि पुरूषों द्वारा औरतों को इस खतरे का हौआ दिखाकर लगातार भयभीत रखना-भर प्रतीत होता है। कुछ व्यक्तियों ने बलात्कार करके समस्त स्त्री समाज को निरन्तर मुट्ठी में रखने का मानो षडयंत्र भर रचा हुआ है क्योंकि बलात्कार शारीरिक अथवा मानसिक रूप से नारी को लगातार एहसास कराता रहता है कि गलती उसी की है। जबकि बलात्कार उस पर जबरन लादा जाता है। जब तक बलात्कार के संदर्भ में कानून और समाज का दृष्टिकोण और परिपे्रक्ष्य नहीं बदलता, तब तक बलात्कार से पीड़ित नारी स्वयं समाज के कठघरे में अभियुक्त बनकर खड़ी रहेगी।
बलात्कार जैसे जघन्य एवं अमानवीय घटनाओं को रोकने के लिए भारतीय दंड सहिता में अनेक कानूनी प्रावधान हैं परन्तु भारतीय न्याय व्यवस्था में इसका अनुपालन अन्य विधियों की अपेक्षा मंद एवं शिथिल दिखता है। हालांकि आई0 पी0 सी0, न्याय व्यवस्था के तहत बलात्कार को संज्ञेय और गैर जमानती अपराध मानता है। सन् 1983 के अपराधिक कानून (संशोधन अधिनियम) के तहत महिलाओं को बलात्कार के शिकार होने से बचाने में संशोधन किया गया। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 में दोषी को कठिन दंड का प्रावधान किया गया। विशेषतया कर्मचारियों, जेल निरीक्षकों के लिए । वहीं धारा 286 बलात्कार के शिकार का नाम प्रकाशित करने पर रोक लगाती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 111(अ) दोषी पर आरोपों को सिद्ध करने की जिम्मेदारी को व्यक्त करती है। जहाँ एक ओर सर्वोच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में परिपुष्टि की आवश्यकता नहीं है, वहीं दूसरी ओर राजनेताओं द्वारा बलात्कारी को मृत्यु दण्ड दिए जाने की मांगे भी उठने लगी हैं और मलिमथ कमेटी भी गठित होने के बाद भी बलात्कारी को फाँसी तक पहुचाँने का प्रावधान अधर में लटक गया। आखिरकार कहाँ और किससे चूक हो जाती है? 1983 में एक मुकदमें का फैसला देते हुए न्यायमूर्ति ए0पी0 सेन और ए0पी0 ठक्कर ने कहा कि वर्तमान भारतीय परिवेश में जब भी कोई महिला या लड़की बलात्कार के मामलें को सामने लाती है तो वह निश्चित रूप से अपने परिवार, मित्रों, सम्बंधियों, पति, भावी पति आदि की नजरों में गिरने , घृणा की पात्र बनने जैसे खतरे उठाकर ही अदालत का दरवाजा खटखटाती है। ऐसे में संभावना अधिकतर इस बात की होती है कि यह मामला सच है, झूठा नहीं ।
ऐसे कानूनों के रहते हुए भी बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय पाना मुश्किल ही नहीं वरन् (जुम्मनखान 1991 को ही केवल फांसी के बदले आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई) असम्भव प्रतीत होता है। इस परिप्रेक्ष्य में अरविन्द जैन का मानना है कि वयस्क और विवाहित महिलाओं के मामले में अधिकतर अपराधी इस आधार पर छोड़ दिये जाते हैं कि संभोग सहमति से हुआ क्योंकि महिला के वक्ष, नितंब या योनि पर कोई चोट के निशान नहीं हैं और महिला संभोग की आदी है। पुलिस द्वारा खोजबीन और गवाहियों में दस घपले, अदालत में बहस के दौरान कानूनी नुक्ते और अनेक खामियों से भरे मौजूदा कानूनों की वजह से ज्यादातर अभियुक्त बरी कर दिए जाते हैं।वास्तव में देखा जाए तो अदालत की ओर ले जाया जाता हुआ बलात्कारी वह अभिशप्त आदमी है, जिसकी पीठ पर पूरी सभ्यता का कूबड़ है।
बलात्कार के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कुछ भी कारण हों परन्तु मूल कारण यही लगता है कि हमारा परम्परावादी समाज बलात्कार की शिकार महिला के साथ वास्तविक सहानुभूति नहीं रख पाता। इसमंे कोई दो राय नहीं कि हमारी परम्पराएं पितृसत्तात्मक होने के कारण स्त्री की अपेक्षा पुरूष को महत्व देती है।पत्रकार गणेश मंत्री का मानना है कि आर्थिक विषमताओं के साथ ही हमारी समूची सामाजिक सोच, प्रत्यक्ष जीवन में व्याप्त स्त्री सम्बन्धी धारणाएं, उनको पुरूष से हीन मानने की सदियों से चली आ रही परम्पराएं स्त्री पर अधिकार और कब्जे को अपनी शक्ति का घोतक मानने की प्रवृत्ति भी स्त्रियों पर अत्याचार के मूल में है। बलात्कार भी उसी की एक परिणति है। आज इसके लिए आवश्यक हैं कि पुरूष और महिला के दृष्टिकोण में बदलाव के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा की नींव कौमार्य से हटाकर उसकी उपलब्धियों एवं सफलता को आगे रखने की परम्परा को आगे बढाया जाए। इससे मनौवैज्ञानिक रूप से बलात्कारियों को दंडित करने में अधिक सुविधा होगी।
महिलाओं के प्रति पुरूष सदस्यों के मनोभावों और सोच में बदलाव सर्वोपरि है, इसके साथ ही महिलाओं में जागरूकता के साथ अपने नैसर्गिक और कानूनी अधिकारों की जानकारी भी आवश्यक है। दूसरे स्तर पर आत्मरक्षार्थ हेतु महिलाओं को एन0सी0सी0 और ताइक्वाडों भी सीखने पर बल देना होगा। आत्मरक्षा की यह शिक्षा सरकारी, गैर सरकारी संगठनों के अलावा घर के सदस्यों के द्वारा भी दी जा सकती है। इसके अलावा स्कूल कालेज की लड़कियों, कामकाजी महिलाओं , स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों, डाक्टरो, वकीलों और महिला पुलिस को इस तरह के प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं।
सरकारी स्तर पर बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए पुलिस प्रशासन में महिलाओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि की आवश्यकता होनी चाहिए। अपराधों को रोकने के लिए क्राइम अगेंस्ट वुमेन सेल का गठन अनिवार्य होने चाहिए। साथ ही अधिकाधिक महिलाओं की पुलिस बल में बहाली के साथ-साथ महिलाओं पर होने वाले बलात्कार जैसे अपराधों को निपटाने हेतु महिला पुलिस की ही व्यवस्था होनी चाहिए। इन घटनाओं को रोकने के लिए जरूरी है न्याय व्यवस्था में सुधार ताकि मामलों का निपटारा शी्रघ हो सके। महिलाओं पर होने वाले न्यायिक प्रकरणों को विशेष अदालतों के माध्यम से तुरन्त न्याय हेतु महिला जांच ब्यूरो जैसे विभागों की स्थापना में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित कर आवश्यक कदम उठाए जाएं।
अश्लील साहित्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अश्लील विज्ञापनों, टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रम सीरियल फिल्मों के साथ-साथ महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाली ऐसी सामग्री जिससे मनोविकार पैदा होते हों, सरकारी स्तर पर उसे प्रतिबंधित किया जाए। बलात्कार से पीड़ित महिलाओं के प्रति गैर सरकारी स्तर पर भी स्वयं सेवी संस्थाए भी महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन कर सकती हैं जो व्यक्तिगत तौर पर पीड़ित परिवार एवं महिला के प्रति सहानुभूति दिखाकर पुलिस एवं अदालत में न्याय दिलवाने का सुरक्षा के साथ इन्तजाम कर सके। ऐसी संस्थाएं जो पीड़ित महिलाओं को निशुल्क कानूनी सहायता पहुचाएं उसका सरकारी स्तर एवं सामाजिक चिन्तक के द्वारा विस्तार एवं प्रचार अवश्य होना चाहिए। इन सबका प्रचार-प्रसार पत्र-पत्रिकाओं, पर्चां, संचार माध्यमों आदि के द्वारा भी किया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के विरूद्ध ही अपराध नहीं बल्कि समस्त समाज के विरूद्ध अपराध है। यह स्त्री की सम्पूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देता है और उसे भयंकर भावनात्मक संकट में धकेलता है, इसलिए बलात्कार सबसे घृणित अपराध है। यह मूल मानवाधिकारों के विरूद्ध अपराध है और पीड़िता के सबसे अधिक प्रिय अधिकार का उल्लंघन हैः उदाहरण के लिए जीने का अधिकार जिसमें सम्मान से जीने का अधिकार शामिल है।वर्तमान का कानून भारतीय महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देता है, आंतकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करता है। कानून में संशोधन के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि समाज और न्यायधीशों का दृष्टिकोण भी बदले। स्वतंत्रता के बाद सत्ताधारी वर्ग ने संसद में बैठकर अपने वर्ग हित की रक्षा के लिए राजनीतिक और आर्थिक मुद्द् पर जितने नये कानून बनाए हैं उसकी तुलना में समाज, नारी, किसान, मजदूर और बाल कल्याण के मामलों पर बनाए गए कानून बहुत ही कम हैं और जो कानून बनाए भी गये हैं वे बेहद अधूरे और दोषपूर्ण हैं। न जाने सरकार, अदालत, कानूनविद्, महिला संगठन और स्वयंसेवी महिलाएं आखिर कब तक गूंगी, बहरी और अंधी बनी रहेंगी? सब चुप क्यों हैं? कोई भी कुछ बोलता क्यों नहीं? आज आवश्यकता इस बात की है कि कानून व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के साथ-साथ जरूरी है सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव।बलात्कारियों को मृत्यु दंड की हवाई घोषणाओं से क्या होना है? बलात्कार के ये आंकड़े और आंकड़ों की तुलनात्मक जमा-घटा सिर्फ संकेत मात्र है। स्त्री के विरूद्ध पुरूष द्वारा की जा रही यौन हंसा की वास्तविक स्थिति सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक विस्फोटक, भयावह और खतरनाक है। आखिर बापू के तीनों बंदर कब तक मुँह, कान और आँखों पर हाथ धरे बैठे रहेगें ?
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सम्पर्क -
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज, उरई (जालौन) उ0प्र0-285001
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7 टिप्पणियां:
kachcha chittha hai ye.
sach hai is vishay me jagrukta lane ki nitant aavashyakta hai. aapke sujhao swagat yogya hain lekin mahila police station aur mahila aarakshi badhane ke sath sath agar aise mukadmon ki pairwi sirf aur sirf mahila judge aur vakeelon ki upastithi me karaye jayen to behtar hoga, yahan UK me bhi vaise vigat kuchh varshon me aise case badhe hain lekin inka nirnay 2-3 mahine me ho jane ke karan yahan control karna asan hai.
ek ati avashyak mudda uthane ke liye dhanyawad, agar iske samarthan me koi determinate sanstha banane ka sochen to mera samarthan hai.
लेख में किताबी बातें ज्यादा हैं. आज तो हा र्कोलेज में लड़कियाँ लड़कों के साथ बाँह में बाँह डाले घूमती मिलती हैं. पुलिस रोके तो धरने पर बैठ जाती हैं. धनी घरों के लड़कों पर डोरे डालने को सफलता मन जाता है. कस्बों तक में सूने स्थान युवाओं की रंगरेलियों के अड्डे हैं. दूरदर्शनी पारंपरिक मूल्य विरोधी सीरियलों ने नैतिक वर्जनाओं कि धज्जियाँ उड़ा दी हैं. दहेज़ विरोधी कानून कि आड़ में लड़कीवाले लड़केवालों का जीना दूभर किये हैं. देह को पूंजी समझकर आय का साधन मानने के दौर में आपका लेख अर्ध सत्य है.
not fair to copy my article verbitam. you may go to jail for infringement of copyright-Dr.v.s.yadav !
मैं आखरी बार आपसे आग्रह कर रहा हूँ की इस लेख को आप यहाँ से हटा लें. यह पूर लेख आपने मेरी किताब से चुराया है. अगर आपने फ़ौरन नहीं हटाया तो मजबूरन मुझे आपके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करनी पड़ेगी. अरविन्द जैन एडवोकेट दिल्ली हाई कोर्ट.
मैं आखरी बार आपसे आग्रह कर रहा हूँ की इस लेख को आप यहाँ से हटा लें. यह पूर लेख आपने मेरी किताब से चुराया है. अगर आपने फ़ौरन नहीं हटाया तो मजबूरन मुझे आपके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करनी पड़ेगी. अरविन्द जैन एडवोकेट दिल्ली हाई कोर्ट.
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