08 मार्च 2009

कुमारेन्द्र सिंह सेंगर का आलेख - देह के आसपास सिमटता स्त्री-विमर्श

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष



भूमण्डलीकरण के इस दौर में जब समाज में नारी सशक्तीकरण की चर्चा की जाती है तो विश्व स्तर पर चार ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति मन-मष्तिष्क में होने लगती है जिन्होंने स्त्री-विमर्श को सशक्तता, वास्तविकता प्रदान की। सन् 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, जिसने समानता, स्वतन्त्रता, बंधुत्व के नैसर्गिक अधिकारों को लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित किया। सन् 1829 का राजा राममोहन राय का सती प्रथा विरोधी कानून, जिसने स्त्री को मानव रूप में स्वीकार करने का अवसर दिया। तीसरी घटना यह कि सन् 1848 में ग्रिमके बहिनों द्वारा तीन सौ स्त्री-पुरुषों की सभा के द्वारा नारी दासता को चुनौती देते हुए नारी सशक्तीकरण की आधारशिला रखी। चौथी घटना सन् 1867 की है जब स्टुअर्ट मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में स्त्री के वयस्क मताधिकार का एक प्रस्ताव रखा जिसने स्त्री को भी मिलने वाले कानूनी एवं संवैधानिक अधिकारों को बल दिया।
भारतीय संदर्भों में नारी सशक्तीकरण आज भी दो ध्रुवों पर केन्द्रित होकर अपनी स्वीकार्यता की माँग कर रहा है। इन दानों ध्रुवों पर भारतीय नारियाँ ही खड़ी दिखायी देती हैं। एक ओर वे महिलायें हैं जो स्वयं की नारी छवि को साथ लेकर विचरण कर रहीं हैं, अपने सतीत्व की रक्षा करती, स्वयं को परिभाषित करने में लगी हुई हैं। इसके ठीक उलट वे नारियाँ भी हैं जो नारी सशक्तीकरण का झण्डा पूरी बुलन्दी के साथ फहरा रहीं हैं किन्तु साथ ही भारतीय नारी की छवि को ‘होम ब्रेकर’ अर्थात् कुलटा की बना रही हैं। नारी सशक्तीकरण का वास्तविक अर्थ भी ऐसी स्त्रियों के कारण विलुप्त होता जा रहा है। देखा जाये तो समाज में हमेशा से प्रकृति प्रदत्त रूप एवं मानव प्रदत्त रूप चलन में रहे हैं। नारी सशक्तीकरण को लेकर भी समाज में दो स्वरूप कायम हैं। पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था को एक ओर प्रकृति प्रदत्त बता कर नारी को सदैव गुलाम मानसिकता का द्योतक बताया गया वहीं दूसरी ओर नारी सशक्तीकरण के नाम पर स्त्रियों द्वारा नारी स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छन्दता को अपना लिया गया है। इस प्रकार के स्वरूपों ने समाज में सदैव ही उथल-पुथल पैदा की है साथ ही सशक्तीकरण अथवा विमर्श के नाम पर भ्रम की स्थिति उत्पन्न की है।
नारी सशक्तीकरण की वर्तमान में जब भी बात होती है तो उसके पीछे स्त्री की स्वतन्त्रता की बात की जाती है। स्वतन्त्रता के सवाल पर समस्त नारीवादी संगठन पुरुष प्रधान समाज का आरोप-प्रत्यारोप करना प्रारम्भ कर देते हैं। यहाँ आकर देखा जाये तो स्पष्ट रूप से दिखायी देता है कि स्त्रियों ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। स्वयं को शिक्षा, राजनैतिक अधिकारों, संवैधानिक अधिकारों के प्रति सचेत किया है। अपने अधिकारों से स्वयं का परिचय करवाया है, अधिकारों की शक्ति का प्रयोग अपने आपको संस्कारों, पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर देने में किया है। सवाल यह उठता है कि नारी को स्वतन्त्रता किससे? नारी स्वतन्त्रता को लेकर, सशक्तीकरण को लेकर जिस वर्चस्व की बात की जा रही है आखिर वह वर्चस्व है किसका? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरुष सत्ता को चुनौती देने की आन्तरिक लालसा, यौन वर्जनाओं के स्खलन, यौन सम्बन्धों की सहज प्रस्तुति, विवाहपूर्व अथवा विवाहेत्तर सम्बन्धों की वकालत, भोगवादी प्रवृत्ति ने नारी सशक्तीकरण की भारतीय अवधारण को बल दिया हो?
हास्यास्पद लगता है कि नारीवाद का समर्थन करने वाली महिलाओं ने अपने अधिकारों का प्रयोग स्वयं को परिवार से मुक्त कर देने में किया। वैवाहिक सम्बन्धों को पारिवारिक-सामाजिक मान्यताओं से इतर सुख और आनन्द का साधन बनाया। भारतीय समाज में स्त्री अस्मिता के लिए सेक्स की प्रस्तुति कभी भी किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं रही। इसे नारी सशक्तीकरण की बिडम्बना ही कही जायेगी कि नारी सशक्तीकरण की समर्थक स्त्री अपनी शक्ति, नारी सशक्तीकरण की सफलता इस बात से तय करती है कि वह एक साथ कितने पुरुषों की शारीरिक शक्ति का परीक्षण कर सकती है। वह सोचती है कि कब पुरुष वेश्यालय बनेंगे। आज अपने को स्वतन्त्र घोषित कर चुकी नारी की चाह अपने परिवार की लड़की का भविष्य सार्थक बनाने में नहीं वरन् इस ओर ध्यान देने में है कि वह किसी भी प्रकार से असुरक्षित सेक्स का शिकार न हो जाये। पुत्री के प्रति उसकी यह चिन्ता नारी को गर्वित नहीं करती वरन् यह इशारा करती है कि नारी सशक्तीकरण किस दिशा की ओर जा रहा है। आज सशक्तीकरण की आड़ लेकर एक स्त्री को पिता, पति, पुत्र का साथ शासक के रूप में लगता है और वह स्वयं को इनका शोषित समझती है। इसके उलट अकेले स्वतन्त्र रूप में रह कर वह इस बात से संतुष्टि पाती है कि वह अविवाहित रह कर प्रत्येक रात कितने अलग-अलग पुरुषों का भोग कर सकती है, अपने माँसल शरीर के आसपास नचा सकती है।
यह सत्य है कि नारी ने पुरुष प्रधान सत्ता के सामने स्वयं अपनी स्थिति को एक शोषित के रूप में ही पाया है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं होना चाहिए कि वह अपनी स्वतन्त्रता के लिए स्वयं को सेक्स सिम्बल के रूप में स्थापित करना प्रारम्भ कर दे। वर्तमान में महिलाओं की स्थिति को देख कर उनकी सशक्तता का एहसास होता है। प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाती नारी आज खुलेआम अपने अनैतिक सम्बन्धों को स्वीकारती दिखायी देती है, अपने बच्चों को पिता के नाम के स्थान पर स्वयं का नाम देती दिखायी देती है। इस प्रकार के उदाहरण स्त्री की सशक्तता के ही प्रमाण कहे जा सकते हैं। नारी सशक्तीकरण को लेकर यहाँ विचारणीय हो सकता है कि क्या इस प्रकार की नारी चेतना के द्वारा सामाजिक सरोकारों की परिणति इसी प्रकार की होनी चाहिए? स्त्री स्वयं को स्वतन्त्र, आजाद घोशित करना चाहती है तो किससे, पिता से, पति से, पुत्र से? अपनी इस स्वतन्त्रता को वह किस रूप में परिभाषित करना चाहती है, क्या एक पुरुष वर्ग के विरोधी के रूप में? परिवार संस्था को हवा में उड़ाती स्त्री कहीं समलिंगी यौन सम्बन्धों की समर्थक तो नहीं हो रही है?
नारी सशक्तीकरण के नाम पर महिलाओं द्वारा कहीं अपनी कुंठा को तो बाहर नहीं निकाला जा रहा है और इसे आत्मविश्वास का नाम देकर परिभाषित किया जा रहा हो? स्त्रियों के सेक्स सम्बन्धों को लेकर चलती बहस, उसके विवाहपूर्व अथवा विवाहेत्तर सम्बन्धों की चर्चा करने पर इसे भी पुरुष की शासक मानसिकता का द्योतक बता कर प्रचारित किया जाता है। नैतिकता, संस्कारों की दुहाई देकर इसे भी नारी को अंकुश में रखने का कुचक्र कहा जाता है। नारीवादी संगठनो द्वारा समय-समय पर उठायी जाती आवाजों में यौन वर्जनाओं के टूटने की ध्वनि प्रस्फुटित होती सुनायी देती है। वे अपना मत देती हैं कि पुरुष भले ही वैज्ञानिकता एवं वस्तुपरक यथार्थ की बातें करता हो पर नारी के प्रति अपने सम्बन्धों को लेकर आत्मबद्ध और भाववादी हो जाता है। यहाँ वह प्लेटानिक उत्कर्ष का दर्शन उड़ेलने लगता है। नारी मुक्ति समर्थक महिलायें इस बिन्दु पर आकर नैतिकता को बेड़ियों की संज्ञा देकर उसे स्वयंसिद्ध (अ)नैतिकता से तोड़ना चाहती हैं।
शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से स्त्री-शक्ति की पहरुआ महिलाओं ने नारी सशक्तीकरण को नारी देह के आसपास ही केन्द्रित कर दिया है। स्वयं को पुरुष के हाथों का खिलौना बताने वाली नारियाँ अब नारियों के हाथों में खेल रहीं हैं। यह नारी सशक्तीकरण का शेखचिल्लीपन ही कहा जायेगा। महिलाओं को मिलते अधिकार, शिशु प्रजनन सम्बन्धी अधिनियम, परिवार को सीमित रखने का अधिकार, तलाकशुदा स्त्री को बच्चा पाने का कानूनी अधिकार आदि-आदि महिलाओं के यौन-प्रस्तुतिकरण से सम्भव नहीं हो सके हैं। भले ही नारी समर्थक इसमें पुरुष वर्ग का किसी प्रकार का सहयोग न माने पर यह तो सत्य है कि महिलाओं की अनैतिक स्वच्छन्दता से भी यह सब सम्भव नहीं हुआ है। गे-कल्चर, स्पर्म बैंक, सरोगेटेड मदर्स, ह्ययूमन क्लोनिंग की सम्भावनाओं ने स्त्रियों की स्वतन्त्रता को नया आयाम भले ही प्रदान किया हो परन्तु इसके साथ में उसे भयाक्रांत भी किया है। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि अपनी अलग दुनिया के निर्माण को तत्पर महिलाओं के जीवन-मूल्य और भविष्य की रूपरेखा क्या होगी? अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को कायम करने के स्थान पर आपसी सम्बन्धों को तिलांजलि दे देना, सामाजिक सरोकारों को त्याग देना किसी भी रूप में आनन्ददायक नहीं हो सकता है। नित परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं का टूट कर बिखरना सामने आ रहा है।
नारी सशक्तीकरण की इन स्वतन्त्र परिस्थितियों के मध्य स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की, उनके विश्वास की चर्चा नहीं होती वरन् राजनीतिक आरक्षण का मसला उठाया जाता है। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण की चर्चा करना प्रमुखता न होकर प्रमुखता इस बात की होती है कि अनब्याही बच्ची का बाप कौन है? स्वतन्त्रता के नाम पर स्वयं को आधुनिक समझने वाली नारियों ने महिलाओं को उत्पाद के रूप में प्रतिष्ठित करवा दिया है। जहाँ आज वह स्वयं बाजारवाद के चलते पुरुष के हाथों में सज रही है। परिवार, घर, बच्चों की परवरिश को अपनी गुलामी समझने वाली नारी को टी0 वी0 की सेल्युलाइड चमक तथा पर्दे की रंगीनियाँ आजादी का सपना तो दिखा सकती हैं पर वास्तविक आजादी कदापि नहीं दिलवा सकती हैं। यही कारण है कि अपने उत्पाद को बेचने के लिए एक निर्माता वर्ग नग्न महिला को ही अपनी पसंद बनाता है। खेल में मनोरंजन के नाम पर प्रदर्शन करने के लिए भी आयोजकों को अर्द्धनग्न चीयर्स बालाओं की थिरकती अदायें भातीं हैं। विद्रूपता यह कि इन चीयर्स बालाओं के समर्थन में स्वयं महिलायें ही परचम बुलन्द करके निकल पड़तीं हैं।
कम से कमतर होते जा रहे वस्त्रों ने नारी वर्ग को हाट तो बनाया है पर उसे उत्पाद ही सिद्ध किया है। वीनस के रूप में सुन्दरता की श्रेणी प्राप्त करती नारी धक-धक गर्ल, चुम्मा गर्ल, मस्त गर्ल, काँटा गर्ल से लेकर मिर्ची गर्ल तक का सफर तय कर चुकी है। नारी सशक्तीकरण के नाम पर नारी की देह को परोसा जा रहा है पर उसे अब इसमें किसी प्रकार के शोषण अथवा असम्मान की झलक नहीं दिखायी देती है क्योंकि यह सब उसके स्वयं के द्वारा हो रहा है। नारी को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है पर वहाँ जहाँ सम्पन्नता है, समृद्धता है, जहाँ सशक्तीकरण नाम की किसी प्रकार की बहस नहीं है। स्त्री वर्ग द्वारा किये जा रहे शारीरिक प्रदर्शन से पुरुष विभेद को पाटा नहीं जा सकता है। पुरुष निर्मित आधारतल पर खड़े होकर, स्वयं को उत्पाद बना कर, देह को आधार बना कर नारी सशक्तीकरण की चर्चा करना बेमानी सी प्रतीत होता है। विचार करना होगा कि बाजारवाद के इस दौर में स्वयं को वस्तु सिद्ध करती नारी किस स्वतन्त्रता, किस सशक्तीकरण की बात कर रही है? इस ओर विचार स्त्रियों को ही करना होगा क्योंकि पुरुष वर्ग द्वारा किया गया विचार नारीवादी समर्थकों को ढकोसला ही दिखायी देगा पर इसके पूर्व नारी सशक्तीकरण को लेकर आरम्भ किये गये प्रयासों में विश्व स्तर सम्पन्न हुई चार घटनाओं का स्मरण भी आवश्यक होगा।


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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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