20 मार्च 2009

कृष्ण कुमार यादव के काव्य संग्रह "अभिलाषा" की समीक्षा


समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)
कवि- कृष्ण कुमार यादव
e-mail - kkyadav.y@rediffmail.com
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प्रकाशक-
शैवाल प्रकाशन,
दाऊदपुर, गोरखपुर
पृष्ठ- 144,
मूल्य- 160 रुपये


व्यक्तिगत सम्बन्धों की कविता में सामाजिक सहानुभूति का मानस-संस्पर्श
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मनुष्य को अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिन्तन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है। जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है। युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयत्न किया है। अभिलाषा का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं।

संकलन की पहली कविता है- माँ के ममत्व भरे भाव की नितान्त स्नेहिल अभिव्यक्ति। जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न बनाया है। शब्द जो अभिधात्मक शैली में कुछ कह रहे हैं वह बहुत स्पष्ट अर्थान्विति के परिचायक हैं, परन्तु भावात्मकता का केन्द्र बिन्दु व्यंजना की अंतश्चेतना संभूत व आत्मीयता का मानवी मनोविज्ञान बनकर उभरा है। गोद में बच्चे को लेकर शुभ की आकांक्षी माँ बुरी नजर से बचाने के लिये काजल का टीका लगाती है, बाँह में ताबीज बाँधती है, स्कूल जा रहे बच्चे की भूख-प्यास स्वयं में अनुभव करती है, पड़ोसी बच्चों से लड़कर आये बच्चे को आँचल में छिपाती है, दूल्हा बने बच्चे को भाव में देखती है, कल्पना के संसार में शहनाईयों की गूँज सुनती है, बहू को सौंपती हुई माँ भावुक हो उठती है। नाजों से पाले अपने लाड़ले को जीवन धन सौंपती हुई माँ के अश्रु, करूणा विगलित स्नेह और अनुराग के मोती बनकर लुढ़क पड़ते हैं। कवि का माँ के प्रति भाव अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौन्दर्य बन जाता है।

कृष्ण कुमार यादव का संवेदनशील मन अनुमान और प्रत्यक्ष की जीवन स्मृतियों का जागृत भाव लोक है, जहाँ माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है। कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखों से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई। किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धअनावृत आँचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है। माँ के विविध रूपों को भावों के अनेक स्तरों पर अंकित होते देखना और कविता को शब्द देना आदर्श और यथार्थ की अनुभूतियों का दिल में उतरने वाला शब्द बोध है।

नारी का प्रेयसी रूप सुकोमल अनुभूतियों से होकर जब भाव भरे ह्नदय के नेह-नीर में रूपायित होता है तब स्पर्श का सुमधुर कंकड़ किस प्रकार तरंगायित कर देता है, ज्योत्सना स्नान प्रेम की सुविस्तारित रति-रजनी के आगोश में बैठे खामोश अंर्तमिलन के क्षणों को इन पंक्तियों में देखें-रात का पहर/जब मैं झील किनारे/ बैठा होता हूँ/चाँद झील में उतर कर/नहा रहा होता है/कुछ देर बाद/चाँद के साथ/एक और चेहरा/मिल जाता है/वह शायद तुम्हारा है/पता नहीं क्यों/ बार-बार होता है ऐसा/मैं नहीं समझ पाता/सामने तुम नहा रही हो या चाँद/आखिरकार झील में/एक कंकड़ फेंककर/खामोशी से मैं/ वहाँ से चला आता हूँ।

तलाश, तुम्हें जीता हूँ, तुम्हारी खामोशी, बेवफा, प्रेयसी, तितलियाँ, प्रेम, कुँवारी किरणें, शीर्षक कवितायें जिन वैयक्तिक भावनाओं की मांसल अभिव्यक्तियों को अंगडाइयों में उमंग से भरकर दिल के झरोखों से झाँकती संयोग और वियोग की रसात्मकता का इजहार करती हैं, वह गहरी सांसों के बीच उठती गिरती जन्म-जन्म से प्यासी प्रीति पयस्विनी के तट पर बैठे युगल की ह्नदयस्पन्दों में सुनी जाने वाली शरीर की खुशबू और छुअन का स्मृति-स्फीत संसार है। इनमें आंगिक चेष्टाओं और ऐन्द्रिक आस्वादनों की सौन्दर्यमयी कल्पना का कलात्मक प्रणयन ह्नदयवान रसज्ञों के लिये रसायन बन सकता है। प्रेयसी उपखण्ड की इन कविताओं में सुकोमल वृत्तियों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हो सकती हैं- सूरज के किरणों की/पहली छुअन/ थोड़ी अल्हड़-सी/ शर्मायी हुई, सकुचाई हुई/ कमरे में कदम रखती है/वही किरण अपने तेज व अनुराग से/वज्र पत्थर को भी/पिघला जाती है/शाम होते ही ढलने लगती हैं किरणें/जैसे कि अपना सारा निचोड़/ उन्होंने धरती को दे दिया हो/ठीक ऐसे ही तुम हो।

जीवन प्रभात से प्रारम्भ होकर विकास, वयस्कता, प्रौढ़ता और वार्धक्य की अवस्थाओं को लांघती कविता की गम्भीर ध्वनि मादकता के उन्माद को जीवन सत्य का दर्शन कराने में सक्षम भी हो जाती है। नारी के स्त्रीत्व को मातृत्व और प्रेयसी रूपों से आगे बढ़ाता हुआ कवि, शोषण, उत्पीड़न, अनाचार, अन्याय के पर्याय बन चुके संदेश से दलित व अबला जीवन से भी साक्षात्कार कराता है, जहाँ महीयसी की महिमा, खंड-खंड हो रही भोग्या बनकर देह बन जाती है। स्त्री विमर्श की इन कविताओं में सामाजिक और वैयक्तिक विचारणा की अनेक संभावनाओं से साक्षात्कार करता कवि भाव और विचार में पूज्या पर हो रहे अनन्त अत्याचारों का पर्दाफाश करता है। बहू को जलाना, हवस का शिकार होना तथा श्वोश् बन कर सड़क के किनारे अधनंगी, पागल और बेचारी बनी बेचारगी क्या कुछ नहीं कह जाती, जो इन कविताओं में बेटी और बहू के रूप में कर्तव्यों की गठरी लादे जीवन की डगर पर अर्थहीन कदमों से जीने को विवश हो जाती है। स्त्री विमर्श का यथार्थ, दलित चेतना की सोच इन कविताओं में वर्तमान का सत्य बन कर उभरी हैं।

ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा। कृष्ण कुमार यादव ने भी ईश्वर के भाव रूप को सर्वात्मा का विकास माना है। उनका मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है। कवि ने ईश्वर के लिए लिखा है-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हूँ, कर्तव्य में हूँ /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढूढते हुए मुझे। कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अन्दर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है।

बालश्रम, बालशोषण और बाल मनोविज्ञान को अभिलाषा की कविताओं में जिन शीर्षकों में अभिव्यक्त किया गया है, उनमें प्रमुख हैं-अखबार की कतरनें, जामुन का पेड़, बच्चे की निगाह, वो अपने, आत्मा, बच्चा और मनुष्य तथा बचपन। इन रचनाओं में बाल मन की जिज्ञासा, आक्रोश, आतंक, मासूमियत, प्रकृति, पर्यावरण आदि का मनुष्य के साथ, पेड़-पौधों के साथ व जीव-जन्तुओं के साथ निकट सम्बन्ध आत्मीयता की कल्पना को साकार करते हुए, अतीत और वर्तमान की स्थितियों से तुलना करते हुए, आगे आने वाले कल की तस्वीर के साथ व्यक्त किया गया है। बहुधा जीवन और कर्तव्य बोध से अनुप्राणित इस खण्ड की कविताओं में कवि ने बच्चे की निगाह में बूढ़े चाचा को भीख का कटोरा लिए हुए भी दिखाया है और हुड़दंग मचाते जामुन के पेड़ तथा मिट्टी की सोधी गंध में मौज-मस्ती करते भी स्मृति के कोटरों में छिपी अतीत की तस्वीर से निकालकर प्रस्तुत करते पाया है। बच्चों के निश्छल मन पर छल की छाया का स्वार्थी प्रपंच किस प्रकार हावी होता है और झूठे प्रलोभन व अहंकार के वशीभूत हुए लोग उन्हें भय का भूत दिखाते हैं और जीवन भर के लिये कुरीतियों का गुलाम बना देते हैं, यह भी इन कविताओं में दृष्टव्य हुआ है।

मन के एकांत में जीवन की गहन चेतना के गम्भीर स्वर समाहित होते हैं। जब मनुष्य आत्मदर्शी होकर प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है, तब संसार के हलचल भरे माहौल से अलग, उसे मखमली घास और पेड़ों के हरित संसार में रची-बसी अलौकिक सुन्दरता का दर्शन होता है और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई देती है। वह मन की खिड़की खोल कर देखता है तभी उसे अपने अस्तित्व के दर्शन होते हैं। अकेलेपन का अहसास कराती नीरवता, मानव जीवन की हकीकत, बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक का सफर अनेक आशाओं और निराशाओं का अंधेरा और उजाला नजर आने लगता है अकेलेपन में। इस प्रकार की कविताएं भी इस संकलन की विशेषता हैं।

वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशायें, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है। प्रकृति के साथ भी कवि का साक्षात्कार हुआ है-पचमढ़ी, बादल, नया जीवन तथा प्रकृति के नियम शीर्षकों में। इनमें मनुष्य के भाव लोक को आनुभूतिक उद्दीपन प्रदान करती प्रकृति और पर्यावरण की सुखद स्मृतियों को प्रकृतस्थ होकर जीवन के साथ-साथ जिया गया है।

नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं। उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुद्ध तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता। वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है।

कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी। मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता। उसके साथ समाज रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम इन कविताओं को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को कवि ने सहज रूप से सामयिक-साहित्यिक सन्दर्भों से युग-बोध भी प्रदान करने का प्रयास किया है। दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव नहीं है, फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि विचार को भाव के ऊपर विजय मिली है। कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ‘‘अभिलाषा’’ की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हैं।

भाषा और शब्द भी आज के लेखन में अपनी पहचान बदल रहे हैं। वह श्वोश् हो गया है, वे और उन का स्थान भी तद्भव रूपों ने ले लिया है। श्री यादव ने भी अनेक शब्दों के व्याकरणीय रूपों का आधुनिकीकरण किया है।

वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि श्री कृष्ण कुमार यादव को विपुल साहित्यिक ऊर्जा सम्पन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिन्दी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे।
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समीक्षक-
डा0 राम स्वरूप त्रिपाठी
पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष,
डी0ए0वी0 कालेज, कानपुर

8 टिप्‍पणियां:

Amit Kumar Yadav ने कहा…

बहुत सुन्दर ! जब समीक्षा इतनी सुन्दर हो तो पुस्तक कैसी होगी...

Bhanwar Singh ने कहा…

कुमारेन्द्र जी! पुस्तक के साथ उसके आवरण का चित्र भी दें तो मजा दुगुना हो जाता है.

Unknown ने कहा…

कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी।......एक स्तरीय समीक्षा. यह कविवर के.के. और समीक्षक त्रिपाठी जी दोनों की विद्वता का द्योतक है.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

के.के. जी की कवितायेँ पढ़ती रहती हूँ. उनके संग्रह के बारे में पढ़कर अच्छा लगा.

बेनामी ने कहा…

कृष्ण कुमार यादव ने ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयत्न किया है।.........यही तो सच्चे कवि की पहचान है.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

इस संग्रह की कविताएं एक नए पथ का निर्माण करती हैं, जहाँ अत्यधिक उपमानों, भौतिकता, व दुरूहता की बजाय स्वाभाविकता, समाजनिष्ठा एवं जागरूक संवेदना है..Badhai.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है।
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तभी तो कहा गया है-जहाँ न पहुँचे रवि,वहाँ पहुँचे कवि.

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

सुंदर अति सुंदर भाई