15 मार्च 2009

कवि कुलवंत सिंह की कुछ ग़ज़ल

1.

दावत बुला के धोखे से है काट सर दिया
हैवां का जी भरा न तो फिर ढा क़हर दिया

दुनिया की कोई हस्ती शिकन इक न दे सकी
अपनों ने उसको घोंप छुरा टुकड़े कर दिया

कण-कण बिखर गया जो किया वार पीठ पर
खुद को रहा समेट कहाँ तोड़ धर दिया

अंडों को खाता साँप ये हैं उसकी आदतें
बच्चे को नर ने खा सच को मात कर दिया

इंसां गिरा है इतना रहा झूठ सच बना
पैसा बना ईमान वही घर में भर दिया

होली जला के रिश्तों की नंगा है नाचता
बन कंस खेल बदतर वह खेल फिर दिया


2.

शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया ।
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया ॥

दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
हर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया ।

किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया ।

मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया ।

आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया ।

गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया ।

कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया ।

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शैदाई= चाहने वाला, पर = पंख, परवाज = उड़ान

3.

बंदा था मैं खुदा का, आदिम मुझे बनाया ।
इंसानियत ने मेरी मुजरिम मुझे बनाया ।

माँगी सदा दुआ है, दुश्मन को भी खुशी दे,
हैवानियत दिखा के ज़ालिम मुझे बनाया ।

दिल में जिसे बसाया , की प्यार से ही सेवा,
झाँका जो उसके अंदर, खादिम मुझे बनाया ।

है शर्मनाक हरकत अपनों से की जो उसने,
कैसे बयां करूँ मैं, नादिम मुझे बनाया ।

रब ने मुझे सिखाया सबको गले लगाना,
सच को सदा जिताऊँ हातिम मुझे बनाया ।

4.
दीन दुनिया धर्म का अंतर मिटा दे ।
जोत इंसानी मोहब्बत की जला दे ।


ऐ खुदा बस इतना तूँ मुझ पर रहम कर,
दिल में लोगों के मुझे थोड़ा बसा दे ।


उर में छायी है उदासी आज गहरी,
मुझको इक कोरान की आयत सुना दे।

जब भी झाँकू अपने अंदर तुमको पाऊँ,
बाँट लूँ दुख दीन का जज़्बा जगा दे ।

रोशनी से तेरी दमके जग ये सारा,
नूर में इसके नहा खुद को भुला दे ।

5.
भरम पाला था मैंने प्यार दो तो प्यार मिलता है ।
यहाँ मतलब के सब मारे न सच्चा यार मिलता है ।


लुटा दो जां भले अपनी न छोड़ें खून पी लेंगे,
जिसे देखो छुपा के हाथ में तलवार मिलता है ।

बहा लो देखकर आँसू न जग में पोंछता कोई,
दिखा दो अश्क दुनिया को तो बस धिक्कार मिलता है ।

नहीं मैं चाहता दुनिया मुझे अब थोड़ा जीने दो,
मिटाकर खुद को देखो तो भी बस अंगार मिलता है ।


मैं पागल हूँ जो दुनिया में सभी को अपना कहता हूँ,
खफ़ा यह मुझसे हैं उनका मुझे दीदार मिलता है ।


मुखौटा देख लो पहना यहाँ हर आदमी नकली
डराना दूसरे को हो सदा तैयार मिलता है ।
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कवि कुलवंत सिंह
Kavi Kulwant singh
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