09 मार्च 2009

सीताराम गुप्ता की लघुकथा - प्रतिद्वंद्वी

गोष्ठी प्रारंभ होने का समय तो हो चुका था लेकिन गोष्ठी प्रारंभ नहीं हुई थी। अभी आठ-दस व्यक्ति ही पहुँच पाए थे क्योंकि आज सर्दी बहुत थी और सुबह घना कोहरा भी था। वैसे भी वक्ता को ज़्यादा जल्दी होती है पहुँचने की श्रोता को नहीं लेकिन जब श्रोता ही नहीं होंगे तो वक्ता कर भी क्या सकते हैं सिवाय इंतज़ार करने के। गोष्ठीपति ज्ञानेन्द्रगुप्तजी गाव तकिये के सहारे बैठे दो-तीन ख़ास लोगों से बतिया रहे थे। बाक़ी लोग अलग से किसी रोचक चर्चा में व्यस्त थे। तभी सुमित मिश्र ने अंदर प्रवेश करते हुए हाथ जोड़ कर सबका अभिवादन किया।
सुमित मिश्र को देखते ही शांति प्रकाश ने चहकते हुए कहा, ‘‘आइये मिश्रजी नमस्कार! आजकल तो आप कमाल का लिख रहे हैं। आपके लेख इतने अच्छे और प्रेरक होते हैं कि बस बार-बार उन्हें ही पढ़ते रहो। हमारी तो सोच ही बदल दी है आपने। आपकी सोच बेहद सकारात्मक और दृष्टिकोण वैज्ञानिक है। सबसे पहले आपका कालम ही पढ़ता हूँ।’’ मिश्रजी कुछ ज़्यादा ही सिकुड़ गए। सर्दी की वजह से नहीं अपितु प्रशंसा सुनकर। बेहद विनम्र और संकोची स्वभाव के हैं मिश्रजी। दूसरों की प्रशंसा शायद ही करते हों, लेकिन खुद के लिए भी ज़्यादा लच्छेदार बातें सुनना उन्हें पसंद नहीं। झूठी प्रशंसा करने और सुनने से तो उन्हें चिढ़ ही है। कोसों दूर हैं किसी भी प्रकार की राजनीति से।
इतने में गोष्ठीपति ज्ञानेन्द्र गुप्तजी की धीर-गंभीर आवाज़ गूँज उठी, ‘‘शांति प्रकाश जी मैं तो इनके लेख बहुत पहले से देख रहा हूँ। कई बार तो बहुत अच्छा लिखते हैं। इनका धैर्य भी अनुकरणीय है। वस्तुतः हमारी गोष्ठी से जुड़े दस-पंद्रह व्यक्ति हैं जो हीरे हैं और मिश्रजी को भी मैं उनमें से एक मानता हूँ।’’ इसके बाद गुप्तजी सुमित मिश्र को संबोधित कर पूछने लगे, ‘‘सुमित कोई किताब-विताब भी छपी कि नहीं अभी तक?’’ सुमित मिश्र कुछ उत्तर देते इससे पहले ही गुप्तजी ने विषयांतरण करते हुए अगला प्रश्न दाग दिया, ‘‘आपका कालम लगभग कितने शब्दों का होता है? मैं समझता हूँ हज़ार-बारह सौ से अधिक शब्द नहीं होंगे। हाथ से लिखे तीन-चार पेज़ के लगभग होंगे। हाथ के लिखे एक पूरे पेज़ में ढाई-तीन सौ के लगभग शब्द बैठते हैं। वैसे इस कालम का कलेवर थोड़ा विस्तृत हो जाए तो अच्छा रहे। इतने कम शब्दों में बात बनी नहीं। अच्छा हाथ से लिखकर भेजते हो या टाइप कराके भेजना पड़ता है?’’
गुप्तजी अभी और कुछ पूछते या कहते इससे पहले ही सिद्ध कुमार जैन ने प्रवेश किया और सुमित मिश्र पर नज़र पड़ते ही अपने मनोद्गार प्रकट करने लगे, ‘‘मिश्रजी हम तो आपके दीवाने...’’ उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि गुप्तजी ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘पर्याप्त लोग आ चुके हैं। अब ऐसा करते हैं कि आज की गोष्ठी का प्रारंभ करते हैं। कृपया गपशप बंद कर दें। फालतू बातें बाद में जलपान के दौरान कर लेंगे।’’

सभी आगंतुकों ने खड़े होकर आँखें बंद कर लीं और प्रार्थना में लीन हो गए। गोष्ठीपति ज्ञानेन्द्र गुप्तजी की प्रार्थना आज कुछ जल्दी ही सम्पन्न हो गई थी। उन्होंने आँखें तो नहीं खोलीं लेकिन बीच-बीच में कनखियों से सुमित मिश्र को अवश्य देख लेते थे।

सीताराम गुप्ता
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