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लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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बाल श्रम की संकल्पना,अवरोधक तत्व,संवैधानिक प्रावधान एवं निराकरण के उपाय
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आजादी के बाद से भारत में पिछले लगभग छः दशकों के निरंतर योजना, कल्याणकारी कार्यक्रमों, विधि निर्माण और प्रशासनिक कार्यों के उपरान्त भी हमारे यहाँ अधिकांश बच्चे दुःख और कष्ट में रह रहे हैं। इन्हें अपने भोजन के लिये मजदूरी करनी पड़ती है। भारतीय उपमहाद्वीप में 19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण के मध्य बालश्रम में विस्तृत एवं विभिन्न स्वरूपों का विस्तार हुआ। शोध एवं सर्वेक्षणों के अनुसार वर्तमान में विश्व के कुल बाल श्रमिकों में से 50 प्रतिशत से अधिक भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान एवं श्रीलंका में आज भी दीनहीन एवं अभाव में अपना जीवनयापन कर रहें हैं। बालश्रम की समस्या,सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक होने के साथ मनोवैज्ञानिक भी हैं।
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर बालश्रमिक किसे कहते हैं ? विश्व की प्रमुख संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 15 वर्ष या उससे कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। अमेरिका कानून के अनुसार 12 वर्ष या कम आयु तथा इंग्लैण्ड एवं अन्य यूरोपीय देशों में 13 वर्ष या कम आयु के श्रमिकों को बाल श्रमिकों की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान इस मुद्दे पर प्रारम्भ से ही अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखता है। यहाँ 5 से 14 वर्ष के बीच के बालक/बालिका जो वैतनिक श्रम करते हैं या श्रम द्वारा पारिवारिक फर्ज चुकाते हैं, बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सामंती काल में बालश्रम को सामाजिक बुराई के रूप में नहीं देखा गया। परन्तु सन 1853 में इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट आंदोलन के समय सर्वप्रथम बालश्रम की अमानवीय एवं शोषणकारी प्रक्रिया की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट किया। उसी समय विक्टर ह्यूगो, आस्कर बाइल्ड आदि साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से बालश्रम जैसें संवेदनशील विषय को गम्भीरता प्रदान की। बालश्रम की इस गंम्भीर प्रवृत्ति को समाजशास्त्रियों ने चार भागों में बांटा हैः-
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बालश्रम की संकल्पना
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(1) नवपुरातनवादी सिद्धान्तः-
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इस सिद्धान्त के अन्तर्गत बच्चों को उपयोग व निवेश की सामग्री मानकर उनके श्रम का उपयोग आय बढ़ाने हेतु किया जाता है। यहां बच्चों को पढ़ाने का खर्च बचाकर श्रम कराने पर विशेष जोर दिया जाता है। अतः ज्यादा बच्चों का बालश्रम से अभिन्न सम्बन्ध है। इस सिद्धान्त को मानने वाले टी. अख्तर, ह्यूज एच. जी. लिविस, एम. टी. फेन, डी. सी. काल्डवेल आदि हैं।
(2) सामाजीकरण का सिद्धान्तः-
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इसके तहत बाल श्रम का इस्तेमाल पारिवारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाता है। कृषि, घरेलू उद्योग आदि इसके अन्तर्गत आते हैं। जी. रोजर्स, स्टैन्डिंग जी. मेयर आदि इसके नियामक हैं।
(3) श्रम बाजार के विखंडन का सिद्धान्तः-
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अविकसित देशों में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था ने श्रम बाजार को दो हिस्सों में बांटा है। बड़ा किसान एवं छोटा किसान अथवा दस्तकार। बाजार की यह टूटन मालिक-श्रमिक सम्बन्धों का आधार है। इसके मानने वाले सी.केट, डी.एम. गोर्डन तथा एडवडर्स आदि हैं।
(4) माक्र्सवादी सिद्धान्तः-
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माक्र्स ने कहा था कि बाल श्रम पूंजीवादी व्यवस्थ का अभिन्न अंग है। नयी तकनीक सस्ते व अकुशल मजदूरों की मांग करती है और बेरोजगारी के कारण बच्चे भी औद्योगिक श्रमिकों के संचित दल का हिस्सा बन जाते हैं।
बाल श्रमिक के अवरोधक तत्व:
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राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना द्वारा 1979 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल बाल श्रमिकों में से 10 से 20 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं। विश्व में बालकों की स्थिति सम्बन्धी यूनिसेफ की रिपोर्ट (1979) के अनुसार भारत में 15 वर्ष से कम आयु के बालकों मं 17 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं।भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा 1996 में किये गये एक अध्ययन एवं सर्वेक्षण के अनुसार देश मे 4.4 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। राष्ट्रीय न्यायिक सर्वेक्षण ने भारत में वर्तमान में करीब 1.4 करोड़ बाल श्रमिक होने का अनुमान लगाया है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि भारत में 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जिसमें 12 करोड़ बच्चे पूरा वक्त काम करते हैं। विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10 से 14 करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं। सेंटर फार कन्सर्न आफ चाइल्ड लेवर के अनुसार हमारे देश में लगभग 10 करोड़ बाल श्रमिक हैं।
भारतीय सामाजिक संगठन द्वारा बाल श्रम पर तैयार रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि करीब 80 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों का या तो शोषण हो रहा है अथवा उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है। यह प्रणाली भारत में वर्षों से अमल में है। इस प्रकार बालश्रम हमारे देश में एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देने का जरिया बन गया है। नये शोध सर्वेक्षणों की मानें तो पचास लाख बंधुआ मजदूर के रूप में बच्चे काम कर रहे हैं। हालांकि भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी में जीवन-यापन करता है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्ग की बात करें तो टीकाकरण एवं शिक्षा का असर उनके बच्चों तक नहीं पहुँच पाता है। बाल-श्रम समाज के लिए आर्थिक रूप से ही नहीं कमजोर बना रहा है। बल्कि यह शारीरिक तथा नैतिक रूप से समाज को पतन की ओर ले जाने वाला भी सिद्ध है।
बाल श्रमिकों की सहभागिता तथा परिवार की आय के बीच सम्बधो की व्याख्या करें तो इसमें पाया गया कि परिवार में जीवन-यापन करने लायक आय न होने पर बच्चे काम पर जाते हैं। शोध सर्वेक्षण के अध्ययन से पता चलता है कि गरीब परिवारों में महिलाएं घर का काम बच्चों पर छोड़कर काम पर निकल जाती हैं। इन परिवारों की महिलाओं के पास काम के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता है। चाहे उसकी आमदनी बहुत कम ही क्यों न हो। इसके फलस्वरूप गृहकार्य में उनके बच्चों का सीपीडब्ल्यू उच्च रहता है। गरीबी और बालश्रम में अंतःसम्बन्ध हैं और ये परस्पर प्रभावित करते हैं। भारत में बच्चों के शोषण के लिये सांस्कृतिक एवं परम्परागत कारक भी जिम्मेवार हैं। परम्परागत रूप से उच्च जाति के बच्चों के जीवन की शुरुआत विद्यालय से होती है; वहीं निम्नजाति के बच्चे अपने परिवार की आदत के अनुरूप जीवन की शुरुआत काम से करते हैं। निम्नजाति के परिवार गरीबी रेखा के नीचे न रहते हुए भी अपने बच्चों को विभिन्न प्रकार के देशों, शिल्पों की जानकारी हेतु विभिन्न जगहों पर भेजते हैं। आज भी भारत के कई गांवों में विद्यालय नहीं हैं अथवा दूरस्थ स्थानों पर हैं। माता-पिता अपने बच्चों को दूसरे गांवों में पढ़ने हेतु नहीं भेजना चाहते हैं। ऐसे मामलों मे बच्चो के पढ़ाई छोड़ने की दर अधिक हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि 6-14 साल के आयुवर्ग के बच्चों में आधा से थोड़ा कम विद्यालय जा पाते हैं। पढ़ाई छोड़ने तथा बालश्रम के बीच सीधा सम्बन्ध है। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाल श्रम के लिये हमारी जाति या वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था , जिसमे प्रायः निम्नजाति या वर्ग में जन्म लेने वाले बच्चों की मजदूरी विरासत में मिलती है, भी बालश्रम के लिए जिम्मेदार है।
संवैधानिक और सरकारी प्रयासः
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भारतीय संविधान में बालश्रमिकों के रोकथाम के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15, राज्यों की महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिये विशिष्ट प्रावधान करने की शक्ति देता है। वहीं अनुच्छेद 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों एवं अन्य जोखिमपूर्ण कार्यों नियोजन का प्रतिरोध किया गया है। अनुच्छेद 39 (ई.एफ.) मे आर्थिक आवश्यकताओं की वजह से किसी व्यक्ति से उसकी क्षमताओं से परे काम करवाने का प्रतिरोध किया गया है इसके साथ ही शैशवों तथा बालकों को शोषण से संरक्षित करने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 45 में बालकों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का निर्देश राज्य सरकारे को दिया गया है। अन्य महत्वपूर्ण प्रावधानों के तहत फैक्ट्री एक्ट 1948 के अनुसार किसी भी फैक्ट्री मे 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोजगार के बारे में निषेधात्मक व्यवस्थायें निर्देशित की गयी हैं। खान एक्ट 1952, खानों में काम करने के लिये न्यूनतम आयु 15 वर्ष निर्धारित करता है। ये तीनों एक्ट बच्चों के चाय, काफी और रबर के बागानां में सायं 6 बजे के बाद काम को निषेधित करते हैं और उनकी सुरक्षा और उत्थान की विकास (व्यवस्था) करते हैं।
अनुबंधित श्रमिक (विनियमितीकरण और उन्मूलन) अधिनियम 1975, अनुबंधित श्रमिकों, जिसमे बच्चे भी शामिल हैं, की कार्यदशायें, मजदूरी का भुगतान, कल्याणकारी सुविधाओं को निर्धारित करता है। बाल श्रमिक (निवारण एवं नियमितीकरण) अधिनियम 1986 के तहत बच्चों के कुछ व्यवसायों में प्रवेश पर रोक लगाता है और कुछ अन्य व्यवसाय प्रकारों की दशाओं का नियमितीकरण करता है। सन 1987 की राष्ट्रीय बाल श्रम नीति के अन्तर्गत बाल श्रमिकों को शोषण से बचाने और उनकी शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन तथा सामान्य विकास पर जोर देने की व्यवस्था की गयी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद (15) (3), 21, 24, 32, 29 (ड़), 39 (च) तथा 45 में बालश्रमिकों के महत्वपूर्ण निम्नलिखित प्रावधान दिए गयें हैं-
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1. राज्य बच्चों के सामाजिक एवं वैधानिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए हस्तक्षेप करेगा तथा समय-समय पर विशेष प्रावधान बनाएगा।
2. प्रत्येक बच्चे के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करेगा।
3. 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाना या संकट पूर्ण काय में नहीं लगाया जायेगा।
4. राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा और वे आर्थिक आवश्यकताओं के कारण ऐसे पेशे में नहीं जाएंगे जिनसे उनकी उम्र और शक्ति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
5. राज्य बाल श्रमिकों हेतु न्यूनतम मजदूरी, कार्य का समय तथा स्थिति के लिए प्रावधान बनाएगा और इन्हें निर्धारित करेगा।
6. राज्य अपनी नीति का प्रयोग बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति निर्धारित करने के लिए करेगा।
7. राज्य 14 वर्ष तक के बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करेगा। बाल श्रम की समस्या के निदान हेतु समय-समय पर कई प्रावधान पारित किए गए हैं। वे इस प्रकार हैं-
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(क) बाल श्रमिक बंधक अधिनियम, 1933
(ख) बाल भर्ती अधिनियम, 1938
(ग) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948
(घ) कारखाना अधिनियम, 1951
(ड़) वृक्षारोपण श्रमिक अधिनियम, 1951
(च) खदान अधिनियम, 1958
(छ) मर्चेन्ट शिपिंग अधिनियम, 1958
(ज) मोटर वाहन मजदूर अधिनियम, 1961
(झ) बीडी़ और सिगरेट मजदूर (रोजगार स्थिति) अधिनियम, 1966
(ट) बाल श्रम (प्रतिबंध-एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986।
इन प्रावधानों से बाल श्रमिकों की कार्य स्थिति,उम्र, कार्य समय, मजदूरी तय किए जाते हैं। बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986 अधिक प्रभावी है।
भारत सरकार ने सन् 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति की घोषणा की। इसमे बाल श्रम से प्रभावित क्षेत्रों मं आय की वृद्धि तथा रोजगार हेतु विकास परियोजनाओं को चालू रखने पर जोर दिया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रमिकों की सुरक्षा एवं बाल श्रम निर्मूलन हेतु प्रयास चल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 1979 को बाल वर्ष घोषित किया तथा विश्व समुदाय का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया। सन् 1889 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस विषय पर सम्मेलन आयोजित किया तथा स्पष्ट किया कि बाल श्रमिकों के सुरक्षा की नितांत आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अभी तक बाल श्रम पर 18 सम्मेलन आयोजित किये है तथा 16 संस्तुतियां प्रस्तुत की हैं। जहां तक बाल-श्रम उन्मूलन का प्रश्न है, भारत हमेशा से इसके निदान हेतु प्रयत्नशील रहा है।
स्रकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर हुए अध्ययनों एवं शोध-सर्वेक्षणों के आधार पर देखें तो बालश्रमिको की तश्वीर स्पष्ट होती प्रतीत होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा 1999-2000 में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार, देश में संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की संख्या 39.7 करोड़ थी। इनमें से 2.8 करोड़ संगठित क्षेत्र में तथा 36.9 करोड़, यानी कुल रोजगार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में लगे हैं। असंगठित क्षेत्र मे 1.7 करोड़ निर्माण क्षेत्र में तथा 4.1 करोड़ विनिर्माण गतिविधियों में संलग्न हैं। इसके अलावा परिवहन और संचार सेवाओं में से प्रत्येक क्षेत्र में 3.7 करोड़ लोग लगे हुए हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में श्रमिकों की संख्या अनुमानतः 40.2 करोड़ है, जिनमें से 31.3 करोड़ प्रमुख श्रमिक हैं और 8.9 करोड़ सीमान्त श्रमिक।
बाल-श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम, 1986 में जोखिम वाले व्यवसायो में बच्चों के काम करने की मनाही के अलावा, कुछ अन्य क्षेत्रों में भी उनको काम देने से सम्बन्धित नियम बनाए गए हैं। अधिनियम में 13 व्यवसायों और 57 प्रक्रियाओं में बाल श्रमिकों को काम पर लगाने की मनाही है। 1987 में बाल श्रम के बारे में एक राष्ट्रीय नीति भी बनायी गयी। दीर्घावधि सफलता के लिए बच्चों के विकास और उनकी शिक्षा के महत्व को समझते हुए, सरकार ने दो विशेष कार्ययोजनाएं प्रारम्भ की हैं। ये हैं- (1) राष्ट्रीय बाल-श्रम परियोजना और (2) बाल श्रमिकों के लाभ और कल्याण के लिए अनुदान सहायता योजना। भारत में 13 राज्यों के 100 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाएं चल रही हैं, जिनमें 2.11 श्रमजीवी बच्चों को फायदा पहुंचेगा। अब तक लगभग 1.70 लाख बच्चों को औपचारिक शिक्षा की मुख्य धारा में लाया जा चुका है। सर्वशिक्षा अभियान के साथ बाल श्रम उन्मूलन के प्रयासों को गति देना इसका एक महत्वपूर्ण आधार है। देश के 5-14 वर्ष तक की आयु के हर बच्चे के लिए प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। पूर्व केन्द्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा के अनुसार दिल्ली में 2004 के अंत तक तथा पूरे देश में 2007 तक बालश्रम का उन्मूलन कर दिया जायेगा। उन्हीं की जुबानी देश में करीब 1.04 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कार्य कर रहे हैं। बालश्रम के निवारणार्थ सरकार ने ‘राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाओं’ की शुरुआत वर्ष 1988 मे की थी। मौजूदा समय में भारत के 100 से अधिक जिलों में यह परियोजना काम कर रही है, जिसके तहत चल रहे 4002 विशेष स्कूलों के माध्यम से दो लाख से अधिक बाल श्रमिकों को पुनर्वासित किया गया है। 10वीं पंचवर्षीय योजना में करीब 250 बाल श्रम परियोजनाएं शुरु होने की सम्भावना है। जहां 9वीं पंचवर्षीय योजना में इस योजना के लिए 249 करोड़ रूपये निर्धारित किए गये थे, वहीं 10वीं पंचवर्षीय योजना के लिए यह राशि बढ़ाकर 602 रुपये कर दी गयी है। इतनी योजना एवं परियोजनाओं के चलने के बाद भी आज बालश्रमिकों के रूप में, घर की सफाई, चाय की दुकानों पसरट्टों,बीड़ी,चूड़ी,कालीन उद्योग, विभिन्न कारखानों में काम करते बच्चे, करद्यों एवं कपड़ा उद्योग, गावों में बाल मजदूर अथवा बंधुआ मजदूरी के रूप में काम करते बच्चे, रेलवे स्टेशनों के पास झुग्गी , झोपड़ी में निवास करते एवं होटलों तथा अन्य प्रतिष्ठानों में इनकी (भविष्य के नवनिर्माता) संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है: जो विश्व सहित भारत के लिए एक गम्भीर चुनौती का रूप् अख्तियार करता जा रहा है।
निष्कषर्ता यह कहा जा सकता है कि बालश्रम की समस्या सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक अधिक प्रतीत होती है। हम एवं हमारा बाहृय रूप् से इस मुद्दे को कितना ही गम्भीर रूप से इसका विरोध क्यों ही न करता हो परन्तु आन्तरिक रूप से हम एक तरह से लाचार नजर आते है। जो वस्तुएं दैनिक जीवन में हम प्रयोग करते है उनकी श्रमशक्ति के पीछे हमने कभी सिदद्त के साथ सोया है कि इसमें किसका हाथ (श्रम) हैं। यदि उन वस्तुओं (प्रोडक्टस) को हम प्रयोग करना बंद कर दें जिसमें हमारे भविष्य के मानव निर्माताओं का श्रम जुड़ा हुआ है, तो मनोवैज्ञानिक रूप से इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। परन्तु इसके लिए हमें मानसिक रूप से परिपक्व होने में लगता हे कि सदियों का सफर तय करना होगा ?
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सम्पर्क
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग
डी0वी0(पी0जी0) उरई जालौन उ0प्र0-285001
लेखक - डॉ० वीरेन्द्र सिंह यादव का परिचय यहाँ देखें
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बाल श्रम की संकल्पना,अवरोधक तत्व,संवैधानिक प्रावधान एवं निराकरण के उपाय
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आजादी के बाद से भारत में पिछले लगभग छः दशकों के निरंतर योजना, कल्याणकारी कार्यक्रमों, विधि निर्माण और प्रशासनिक कार्यों के उपरान्त भी हमारे यहाँ अधिकांश बच्चे दुःख और कष्ट में रह रहे हैं। इन्हें अपने भोजन के लिये मजदूरी करनी पड़ती है। भारतीय उपमहाद्वीप में 19वीं शताब्दी में औद्योगीकरण के मध्य बालश्रम में विस्तृत एवं विभिन्न स्वरूपों का विस्तार हुआ। शोध एवं सर्वेक्षणों के अनुसार वर्तमान में विश्व के कुल बाल श्रमिकों में से 50 प्रतिशत से अधिक भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान एवं श्रीलंका में आज भी दीनहीन एवं अभाव में अपना जीवनयापन कर रहें हैं। बालश्रम की समस्या,सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक होने के साथ मनोवैज्ञानिक भी हैं।
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि आखिर बालश्रमिक किसे कहते हैं ? विश्व की प्रमुख संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 15 वर्ष या उससे कम आयु का श्रमिक बाल श्रमिक है। अमेरिका कानून के अनुसार 12 वर्ष या कम आयु तथा इंग्लैण्ड एवं अन्य यूरोपीय देशों में 13 वर्ष या कम आयु के श्रमिकों को बाल श्रमिकों की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान इस मुद्दे पर प्रारम्भ से ही अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखता है। यहाँ 5 से 14 वर्ष के बीच के बालक/बालिका जो वैतनिक श्रम करते हैं या श्रम द्वारा पारिवारिक फर्ज चुकाते हैं, बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सामंती काल में बालश्रम को सामाजिक बुराई के रूप में नहीं देखा गया। परन्तु सन 1853 में इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट आंदोलन के समय सर्वप्रथम बालश्रम की अमानवीय एवं शोषणकारी प्रक्रिया की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट किया। उसी समय विक्टर ह्यूगो, आस्कर बाइल्ड आदि साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से बालश्रम जैसें संवेदनशील विषय को गम्भीरता प्रदान की। बालश्रम की इस गंम्भीर प्रवृत्ति को समाजशास्त्रियों ने चार भागों में बांटा हैः-
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बालश्रम की संकल्पना
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(1) नवपुरातनवादी सिद्धान्तः-
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इस सिद्धान्त के अन्तर्गत बच्चों को उपयोग व निवेश की सामग्री मानकर उनके श्रम का उपयोग आय बढ़ाने हेतु किया जाता है। यहां बच्चों को पढ़ाने का खर्च बचाकर श्रम कराने पर विशेष जोर दिया जाता है। अतः ज्यादा बच्चों का बालश्रम से अभिन्न सम्बन्ध है। इस सिद्धान्त को मानने वाले टी. अख्तर, ह्यूज एच. जी. लिविस, एम. टी. फेन, डी. सी. काल्डवेल आदि हैं।
(2) सामाजीकरण का सिद्धान्तः-
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इसके तहत बाल श्रम का इस्तेमाल पारिवारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाता है। कृषि, घरेलू उद्योग आदि इसके अन्तर्गत आते हैं। जी. रोजर्स, स्टैन्डिंग जी. मेयर आदि इसके नियामक हैं।
(3) श्रम बाजार के विखंडन का सिद्धान्तः-
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अविकसित देशों में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था ने श्रम बाजार को दो हिस्सों में बांटा है। बड़ा किसान एवं छोटा किसान अथवा दस्तकार। बाजार की यह टूटन मालिक-श्रमिक सम्बन्धों का आधार है। इसके मानने वाले सी.केट, डी.एम. गोर्डन तथा एडवडर्स आदि हैं।
(4) माक्र्सवादी सिद्धान्तः-
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माक्र्स ने कहा था कि बाल श्रम पूंजीवादी व्यवस्थ का अभिन्न अंग है। नयी तकनीक सस्ते व अकुशल मजदूरों की मांग करती है और बेरोजगारी के कारण बच्चे भी औद्योगिक श्रमिकों के संचित दल का हिस्सा बन जाते हैं।
बाल श्रमिक के अवरोधक तत्व:
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राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना द्वारा 1979 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार देश के कुल बाल श्रमिकों में से 10 से 20 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं। विश्व में बालकों की स्थिति सम्बन्धी यूनिसेफ की रिपोर्ट (1979) के अनुसार भारत में 15 वर्ष से कम आयु के बालकों मं 17 प्रतिशत घरेलू नौकर हैं।भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा 1996 में किये गये एक अध्ययन एवं सर्वेक्षण के अनुसार देश मे 4.4 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। राष्ट्रीय न्यायिक सर्वेक्षण ने भारत में वर्तमान में करीब 1.4 करोड़ बाल श्रमिक होने का अनुमान लगाया है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि भारत में 25 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जिसमें 12 करोड़ बच्चे पूरा वक्त काम करते हैं। विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10 से 14 करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं। सेंटर फार कन्सर्न आफ चाइल्ड लेवर के अनुसार हमारे देश में लगभग 10 करोड़ बाल श्रमिक हैं।
भारतीय सामाजिक संगठन द्वारा बाल श्रम पर तैयार रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि करीब 80 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों का या तो शोषण हो रहा है अथवा उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है। यह प्रणाली भारत में वर्षों से अमल में है। इस प्रकार बालश्रम हमारे देश में एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देने का जरिया बन गया है। नये शोध सर्वेक्षणों की मानें तो पचास लाख बंधुआ मजदूर के रूप में बच्चे काम कर रहे हैं। हालांकि भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी में जीवन-यापन करता है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्ग की बात करें तो टीकाकरण एवं शिक्षा का असर उनके बच्चों तक नहीं पहुँच पाता है। बाल-श्रम समाज के लिए आर्थिक रूप से ही नहीं कमजोर बना रहा है। बल्कि यह शारीरिक तथा नैतिक रूप से समाज को पतन की ओर ले जाने वाला भी सिद्ध है।
बाल श्रमिकों की सहभागिता तथा परिवार की आय के बीच सम्बधो की व्याख्या करें तो इसमें पाया गया कि परिवार में जीवन-यापन करने लायक आय न होने पर बच्चे काम पर जाते हैं। शोध सर्वेक्षण के अध्ययन से पता चलता है कि गरीब परिवारों में महिलाएं घर का काम बच्चों पर छोड़कर काम पर निकल जाती हैं। इन परिवारों की महिलाओं के पास काम के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता है। चाहे उसकी आमदनी बहुत कम ही क्यों न हो। इसके फलस्वरूप गृहकार्य में उनके बच्चों का सीपीडब्ल्यू उच्च रहता है। गरीबी और बालश्रम में अंतःसम्बन्ध हैं और ये परस्पर प्रभावित करते हैं। भारत में बच्चों के शोषण के लिये सांस्कृतिक एवं परम्परागत कारक भी जिम्मेवार हैं। परम्परागत रूप से उच्च जाति के बच्चों के जीवन की शुरुआत विद्यालय से होती है; वहीं निम्नजाति के बच्चे अपने परिवार की आदत के अनुरूप जीवन की शुरुआत काम से करते हैं। निम्नजाति के परिवार गरीबी रेखा के नीचे न रहते हुए भी अपने बच्चों को विभिन्न प्रकार के देशों, शिल्पों की जानकारी हेतु विभिन्न जगहों पर भेजते हैं। आज भी भारत के कई गांवों में विद्यालय नहीं हैं अथवा दूरस्थ स्थानों पर हैं। माता-पिता अपने बच्चों को दूसरे गांवों में पढ़ने हेतु नहीं भेजना चाहते हैं। ऐसे मामलों मे बच्चो के पढ़ाई छोड़ने की दर अधिक हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि 6-14 साल के आयुवर्ग के बच्चों में आधा से थोड़ा कम विद्यालय जा पाते हैं। पढ़ाई छोड़ने तथा बालश्रम के बीच सीधा सम्बन्ध है। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाल श्रम के लिये हमारी जाति या वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था , जिसमे प्रायः निम्नजाति या वर्ग में जन्म लेने वाले बच्चों की मजदूरी विरासत में मिलती है, भी बालश्रम के लिए जिम्मेदार है।
संवैधानिक और सरकारी प्रयासः
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भारतीय संविधान में बालश्रमिकों के रोकथाम के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15, राज्यों की महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिये विशिष्ट प्रावधान करने की शक्ति देता है। वहीं अनुच्छेद 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों एवं अन्य जोखिमपूर्ण कार्यों नियोजन का प्रतिरोध किया गया है। अनुच्छेद 39 (ई.एफ.) मे आर्थिक आवश्यकताओं की वजह से किसी व्यक्ति से उसकी क्षमताओं से परे काम करवाने का प्रतिरोध किया गया है इसके साथ ही शैशवों तथा बालकों को शोषण से संरक्षित करने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 45 में बालकों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का निर्देश राज्य सरकारे को दिया गया है। अन्य महत्वपूर्ण प्रावधानों के तहत फैक्ट्री एक्ट 1948 के अनुसार किसी भी फैक्ट्री मे 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोजगार के बारे में निषेधात्मक व्यवस्थायें निर्देशित की गयी हैं। खान एक्ट 1952, खानों में काम करने के लिये न्यूनतम आयु 15 वर्ष निर्धारित करता है। ये तीनों एक्ट बच्चों के चाय, काफी और रबर के बागानां में सायं 6 बजे के बाद काम को निषेधित करते हैं और उनकी सुरक्षा और उत्थान की विकास (व्यवस्था) करते हैं।
अनुबंधित श्रमिक (विनियमितीकरण और उन्मूलन) अधिनियम 1975, अनुबंधित श्रमिकों, जिसमे बच्चे भी शामिल हैं, की कार्यदशायें, मजदूरी का भुगतान, कल्याणकारी सुविधाओं को निर्धारित करता है। बाल श्रमिक (निवारण एवं नियमितीकरण) अधिनियम 1986 के तहत बच्चों के कुछ व्यवसायों में प्रवेश पर रोक लगाता है और कुछ अन्य व्यवसाय प्रकारों की दशाओं का नियमितीकरण करता है। सन 1987 की राष्ट्रीय बाल श्रम नीति के अन्तर्गत बाल श्रमिकों को शोषण से बचाने और उनकी शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन तथा सामान्य विकास पर जोर देने की व्यवस्था की गयी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद (15) (3), 21, 24, 32, 29 (ड़), 39 (च) तथा 45 में बालश्रमिकों के महत्वपूर्ण निम्नलिखित प्रावधान दिए गयें हैं-
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1. राज्य बच्चों के सामाजिक एवं वैधानिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए हस्तक्षेप करेगा तथा समय-समय पर विशेष प्रावधान बनाएगा।
2. प्रत्येक बच्चे के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा सुनिश्चित करेगा।
3. 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाना या संकट पूर्ण काय में नहीं लगाया जायेगा।
4. राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा और वे आर्थिक आवश्यकताओं के कारण ऐसे पेशे में नहीं जाएंगे जिनसे उनकी उम्र और शक्ति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
5. राज्य बाल श्रमिकों हेतु न्यूनतम मजदूरी, कार्य का समय तथा स्थिति के लिए प्रावधान बनाएगा और इन्हें निर्धारित करेगा।
6. राज्य अपनी नीति का प्रयोग बच्चों के स्वास्थ्य एवं शक्ति निर्धारित करने के लिए करेगा।
7. राज्य 14 वर्ष तक के बालकों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करेगा। बाल श्रम की समस्या के निदान हेतु समय-समय पर कई प्रावधान पारित किए गए हैं। वे इस प्रकार हैं-
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(क) बाल श्रमिक बंधक अधिनियम, 1933
(ख) बाल भर्ती अधिनियम, 1938
(ग) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948
(घ) कारखाना अधिनियम, 1951
(ड़) वृक्षारोपण श्रमिक अधिनियम, 1951
(च) खदान अधिनियम, 1958
(छ) मर्चेन्ट शिपिंग अधिनियम, 1958
(ज) मोटर वाहन मजदूर अधिनियम, 1961
(झ) बीडी़ और सिगरेट मजदूर (रोजगार स्थिति) अधिनियम, 1966
(ट) बाल श्रम (प्रतिबंध-एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986।
इन प्रावधानों से बाल श्रमिकों की कार्य स्थिति,उम्र, कार्य समय, मजदूरी तय किए जाते हैं। बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986 अधिक प्रभावी है।
भारत सरकार ने सन् 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति की घोषणा की। इसमे बाल श्रम से प्रभावित क्षेत्रों मं आय की वृद्धि तथा रोजगार हेतु विकास परियोजनाओं को चालू रखने पर जोर दिया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रमिकों की सुरक्षा एवं बाल श्रम निर्मूलन हेतु प्रयास चल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 1979 को बाल वर्ष घोषित किया तथा विश्व समुदाय का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया। सन् 1889 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस विषय पर सम्मेलन आयोजित किया तथा स्पष्ट किया कि बाल श्रमिकों के सुरक्षा की नितांत आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अभी तक बाल श्रम पर 18 सम्मेलन आयोजित किये है तथा 16 संस्तुतियां प्रस्तुत की हैं। जहां तक बाल-श्रम उन्मूलन का प्रश्न है, भारत हमेशा से इसके निदान हेतु प्रयत्नशील रहा है।
स्रकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर हुए अध्ययनों एवं शोध-सर्वेक्षणों के आधार पर देखें तो बालश्रमिको की तश्वीर स्पष्ट होती प्रतीत होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा 1999-2000 में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार, देश में संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की संख्या 39.7 करोड़ थी। इनमें से 2.8 करोड़ संगठित क्षेत्र में तथा 36.9 करोड़, यानी कुल रोजगार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में लगे हैं। असंगठित क्षेत्र मे 1.7 करोड़ निर्माण क्षेत्र में तथा 4.1 करोड़ विनिर्माण गतिविधियों में संलग्न हैं। इसके अलावा परिवहन और संचार सेवाओं में से प्रत्येक क्षेत्र में 3.7 करोड़ लोग लगे हुए हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में श्रमिकों की संख्या अनुमानतः 40.2 करोड़ है, जिनमें से 31.3 करोड़ प्रमुख श्रमिक हैं और 8.9 करोड़ सीमान्त श्रमिक।
बाल-श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम, 1986 में जोखिम वाले व्यवसायो में बच्चों के काम करने की मनाही के अलावा, कुछ अन्य क्षेत्रों में भी उनको काम देने से सम्बन्धित नियम बनाए गए हैं। अधिनियम में 13 व्यवसायों और 57 प्रक्रियाओं में बाल श्रमिकों को काम पर लगाने की मनाही है। 1987 में बाल श्रम के बारे में एक राष्ट्रीय नीति भी बनायी गयी। दीर्घावधि सफलता के लिए बच्चों के विकास और उनकी शिक्षा के महत्व को समझते हुए, सरकार ने दो विशेष कार्ययोजनाएं प्रारम्भ की हैं। ये हैं- (1) राष्ट्रीय बाल-श्रम परियोजना और (2) बाल श्रमिकों के लाभ और कल्याण के लिए अनुदान सहायता योजना। भारत में 13 राज्यों के 100 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाएं चल रही हैं, जिनमें 2.11 श्रमजीवी बच्चों को फायदा पहुंचेगा। अब तक लगभग 1.70 लाख बच्चों को औपचारिक शिक्षा की मुख्य धारा में लाया जा चुका है। सर्वशिक्षा अभियान के साथ बाल श्रम उन्मूलन के प्रयासों को गति देना इसका एक महत्वपूर्ण आधार है। देश के 5-14 वर्ष तक की आयु के हर बच्चे के लिए प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। पूर्व केन्द्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा के अनुसार दिल्ली में 2004 के अंत तक तथा पूरे देश में 2007 तक बालश्रम का उन्मूलन कर दिया जायेगा। उन्हीं की जुबानी देश में करीब 1.04 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कार्य कर रहे हैं। बालश्रम के निवारणार्थ सरकार ने ‘राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाओं’ की शुरुआत वर्ष 1988 मे की थी। मौजूदा समय में भारत के 100 से अधिक जिलों में यह परियोजना काम कर रही है, जिसके तहत चल रहे 4002 विशेष स्कूलों के माध्यम से दो लाख से अधिक बाल श्रमिकों को पुनर्वासित किया गया है। 10वीं पंचवर्षीय योजना में करीब 250 बाल श्रम परियोजनाएं शुरु होने की सम्भावना है। जहां 9वीं पंचवर्षीय योजना में इस योजना के लिए 249 करोड़ रूपये निर्धारित किए गये थे, वहीं 10वीं पंचवर्षीय योजना के लिए यह राशि बढ़ाकर 602 रुपये कर दी गयी है। इतनी योजना एवं परियोजनाओं के चलने के बाद भी आज बालश्रमिकों के रूप में, घर की सफाई, चाय की दुकानों पसरट्टों,बीड़ी,चूड़ी,कालीन उद्योग, विभिन्न कारखानों में काम करते बच्चे, करद्यों एवं कपड़ा उद्योग, गावों में बाल मजदूर अथवा बंधुआ मजदूरी के रूप में काम करते बच्चे, रेलवे स्टेशनों के पास झुग्गी , झोपड़ी में निवास करते एवं होटलों तथा अन्य प्रतिष्ठानों में इनकी (भविष्य के नवनिर्माता) संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है: जो विश्व सहित भारत के लिए एक गम्भीर चुनौती का रूप् अख्तियार करता जा रहा है।
निष्कषर्ता यह कहा जा सकता है कि बालश्रम की समस्या सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक अधिक प्रतीत होती है। हम एवं हमारा बाहृय रूप् से इस मुद्दे को कितना ही गम्भीर रूप से इसका विरोध क्यों ही न करता हो परन्तु आन्तरिक रूप से हम एक तरह से लाचार नजर आते है। जो वस्तुएं दैनिक जीवन में हम प्रयोग करते है उनकी श्रमशक्ति के पीछे हमने कभी सिदद्त के साथ सोया है कि इसमें किसका हाथ (श्रम) हैं। यदि उन वस्तुओं (प्रोडक्टस) को हम प्रयोग करना बंद कर दें जिसमें हमारे भविष्य के मानव निर्माताओं का श्रम जुड़ा हुआ है, तो मनोवैज्ञानिक रूप से इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। परन्तु इसके लिए हमें मानसिक रूप से परिपक्व होने में लगता हे कि सदियों का सफर तय करना होगा ?
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सम्पर्क
वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग
डी0वी0(पी0जी0) उरई जालौन उ0प्र0-285001
1 टिप्पणी:
sach me sir bahut hi badhiya likha he aapne, aap aage bhi likhte rahen.
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