लोहे के विशाल पिंजरे में एक सिंह हत्यारा
किसी तरह था बन्द हो गया चला न कोई चारा
वह छटपटा रहा था बाहर किसी तरह आ जाता
उस खूँखार जानवर पर, पर कौन दया दिखलाता ॥१॥
भीख माँग कर लौट रहा था पंडित सीधा सादा
बहुत थका था घर जाने का उसका रहा इरादा
कंधे पर झोली लटकाये लिये हाथ में माला
राह पकड़ कर चला जा रहा था पंडित भोलाभाला ॥२॥
उसे देख कर पिंजड़े वाला सिंह लगा घिघियाने
हाथ जोड़कर रो-रो कर पंडित को लगा बुलाने
बोला, "आप दयालु विप्र हैं, हम हैं दुखिया प्राणी
कई दिनों से तड़प रहा हूँ मिला न दाना-पानी ॥३॥
द्वार खोलकर मुझको बाहर कर दो मेरे भइया
खूब फले फूलेंगे तेरे बेटे बाबू-भइया
हे ब्राह्मण देवता कसम खाता हूँ तेरे आगे
धर्मात्मा हैं आप हम सभी पशु तो बड़े अभागे ॥४॥
कभीं नहीं नुकसान तुम्हारा होने दूँगा बाबू
सबसे तुम्हें बचाउंगा जो दुष्ट जन्तु बेकाबू "
पंडित बोला, "मैं कैसे विश्वास करूँ बतलाओ
मैं चलता जंगल का राजा मुझे नहीं भरमाओ" ॥५॥
सिंह दीनता की ब्राह्मण से लगा बोलने भाषा
"ब्राह्मण ही निर्दयी हुआ तो फिर किससे है आशा
प्राण हमारे संकट में है बाबा दया दिखाओ
हाथ जोड़ प्रार्थना कर रहा द्वार खोल कर जाओ"॥६॥
विप्र देवता पिघल गये रो रहा मृगों का राजा
खोल दिया धीरे से जा कर पिंजरे का दरवाजा
सिंह झपट कर बाहर निकला लिया बड़ी अँगड़ाई
अपने मुँह में लिया पकड़ पंडित की तुरत कलाई ॥७॥
"यह तुम क्या कर रहे"? विप्र को हुई बहुत हैरानी
कहा सिंह ने, "पंडित तेरी होगी खत्म कहानी"
"विप्र, तुम्हें भागने न दूँगा" सिंह गरज कर बोला
"तुम्हें चबाकर पेट भरुँगा फेंको माला झोला" ॥८॥
"चलो किसी से भी पूछो क्या काम भला यह तेरा
मुझ गरीब को छोड़ो मेरा जोगी वाला फेरा "
कहा सिंह ने, "क्या पूछेगा, क्यों गढ़ रहा बहाने ?
सबसे पहले पेट भरें हम, भला-बुरा क्या जानें ॥९॥
किन्तु किसी से लेना ही हो तुमको कहीं गवाही
तो चल अभीं पूछ लो जल्दी, नहीं करुंगा नाहीं "
दोनों चले राह में पीपल पेड़ मिला लहराता
कहा विप्र ने "रुको इसी को हूँ सब कथा सुनाता"॥१०॥
पीपल धुनने लगा माथ सुन उसकी करुण कहानी
कहा "सिंह कर रहा ठीक यह जग की चाल पुरानी
सभी स्वार्थी, मुझको देखो देता लकड़ी छाया
पर इस दुनिया वालों ने मेरी डालें कटवाया" ॥११॥
आगे बढ़ा मिली गैया उसको सब कथा सुनाई
दर्द सुना ब्राह्मण का गइया को आ गयी रुलाई
बोली "दुहते दूध पीटते देते हमें न चारा
सभी स्वार्थी, सिंह कह रहा जो वह सच है सारा"॥१२॥
कहा सिंह ने गरज, " सुन लिया, बात सही है मेरी
अभी समाप्त किये देता हूँ जीवनलीला तेरी"
गुजर रहा था एक स्यार ब्राह्मण ने उसे पुकारा
बोला "सच-सच निर्णय कर दो भइया तुम्हीं हमारा ॥१३॥
पिंजरे में था बंद सिंह हमने दरवाजा खोला
मुझको ही यह खाना चाहे," स्यार डपट कर बोला-
"पिंजरे में हो सिंह ? तुम्हारी सारी बातें झूठी
मेरे जंगल के राजा की करनी बड़ी अनूठी" ॥१४॥
कैसे पिंजरे बीच फँसा जा लगा सिंह दिखलाने
"क्या सिटकिनी बंद थी पंडित?" स्यार लगा चिल्लाने
करके बंद दिखाओ, कैसे मानूँ बात तुम्हारी ?
किया बंद सिटकिनी अँगुलियाँ काँप रही थी सारी ॥१५॥
"देखो स्यार", सिंह बोला, "अब खोलो द्वार हमारा"
बोला स्यार, "भगो पंडित, हो गया बन्द हत्यारा"
जो न यहाँ विश्वास योग्य उनके न बनो विश्वासी
बहुत सिधाई भी बन जाती कभीं गले की फाँसी ॥१६॥
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हिमांशु पाण्डेय
सकलडीहा, चन्दौली (उ०प्र०)
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