20 मई 2009

डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख - भ्रष्टाचार का मनोविज्ञान

भ्रष्टाचार का मनोविज्ञान
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डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
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लेखक परिचय
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा0 वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चैक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियां (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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आजादी मिलने के बाद से भारत में जब पूंजी निवेश एवं नियोजन प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिससे प्रशासन में नौकरशाही, व्यापार एवं प्रबधन एन0 जी0 ओ0 तथा नेताओं में ऐसे वर्ग का विकास हुआ जिसमें पैसों के लेन-देन(रिश्वत खोरी) की संभावना एवं संख्या बढ़ने लगी । वर्तमान की बात करें तो आज देश सर्वत्र भ्रष्टाचार के जाल से आच्छादित अर्थात् भ्रष्टाचार देश की व्यवस्थों की रग-रग में बस गया है। व्यवस्था के अन्दर बैठे लोगों तथा व्यवस्था के बाहर बैठे लोगों ने इसे स्वीकार सा कर लिया है। राष्ट्रीय आचरण के रोम-रोम में व्याप्त, एक साधारण चपरासी से लेकर प्रथम श्रेणी के आफीसर, कर्मचारी, बाबू, क्लर्क, व्यवसायी नेता, मन्त्री आफिस के बाहर एजेन्ट, राजस्व विभाग के बाहर दुकादार या फिर थानों का बंधा हप्ता अर्थात् भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है। जैसे तुलसी बाबा ने अपने राम की व्याप्त हर चर-अचर; सजीव-निर्जीव आदि में बताई है वैसे ही हमारे यहाँ भ्रष्टाचार ने वह स्थान ग्रहण कर लिया है। पहले तो भ्रष्टाचारियों को पकड़े जाने का भय होता था अब पकड़े नहीं जाने पर अफसोस जताते हैं। पकड़े गये तो हीरो। और यदि पकड़े गए नेता यदि जेल गए तो मंत्री। अर्थात् आज भ्रष्टाचार ने सामाजिक सुचिता को शून्य पर ला खड़ा कर दिया हैं। ऐसी स्थिति में ईमानदार और सत्यवादी व्यक्ति कैसे जी पा रहे हैं, यह एक चमत्कार है मिरेकल है ।वर्तमान भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अपने विकराल रूप में इस तरह फैल चुका है कि लगभग हर तीसरा व्यक्ति पैसा कमाने को ही महत्वपूर्ण मानता है उसके लिए साधन की पवित्रता कोई खाश मायने नहीं रखती क्योंकि हमारे देश में भ्रष्टाचार अब सामाजिक आंतकवाद का रूप ले चुका है।
भारत विश्व के उन समृद्धतम देशों में एक है जो अपने प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों की दृष्टि से समृद्धि है फिर भी देश की गिनती विश्व के भ्रष्टतम देशों में होती है। हर वर्ष एक से बढकर एक घोटाले विश्व में भारत की छवि को निरन्तर धूमिल करते रहते हैं। सरकारें भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाने में अक्षम साबित हो रही हैं।इसके साथ ही यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि शुरू में जब मामला प्रकाश में आता है तो उसे खूब प्रचारित-प्रसारित किया जाता है लेकिन उसके बाद या तो वे मामले जाँच के ठंडे बस्ते में चले जाते हैं या वर्षों न्यायालय में लंबित हो जाते है। एक निश्चित समय के अन्दर भ्रष्टाचारी को कानून के शिंकजे में न कस पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे दुःखद दूसरा विषय है कि अभियोजन की अनुमति लेने में ही लंबा समय व्यतीत हो जाता है: इसमें तीसरा संकट तब उत्पन्न हो जाता है जब अभियुक्त राजनेता , बड़ा अधिकारी या उंचे रसूख वाला है तो उस पर मुकदमा चलाने की अनुमति लेने में अदालतों को वर्षों लग जाते हैं। अध्ययन एवं सर्वेक्षण यही बयान करते है कि अल्पमत की सरकारें भी ऐसा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती क्योंकि उन्हें हमेशा गिरने का भय सताता रहता है इसलिए ऐसे कठोर कदम उठाने में वे परहेज करती हैं जो उनकी पार्टी गठबन्धन के विरूद्ध जाए ! आज देश में भ्रष्टाचार फैलने की सबसे प्रमुख वजह अधिकारियों (नौकरशाहों) का स्थानांतरण और निलंबन/ऊंचे और जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी इनसे बचने के लिए अपने नेताओं, मंत्रियों की बात मानने के लिए बाध्य होते हैं। यदि अधिकारी झुकते नही तो औरैया का इंजीनियर हत्याकाण्ड हो जाता है और झुक गये तो उत्तरोत्तर भ्रष्टाचार की वैतरणी में उतरते चले जाते है। भरतीय राजनीति में यह चैकानें वाली बात है कि देश में 800 से अधिक सांसदों की संपति का ब्यौरा एक हजार करोड़ रूपये से भी अधिक है। औसत रूप में इसे मूल्यांकित किया जाए तो यह एक करोड़ से भी अधिक प्रति सांसद का पड़ता हैः हम एक प्रश्न यहाँ करना चाहते हैं कि इन भद्र पुरूषों से पूछा जाए कि आखिर कहाँ से आया इतना पैसा इनके पास? और अभी तक इसकी जाँच क्यों नहीं हो पाई? और भारतीय जनमानस में इसे कितने लोगों के द्वारा कितनी गम्भीरता से लिया जा रहा है?
भ्रष्टाचार रूपी इस महामारी का अन्त कैसे हो इस पर आज शिद्दत के साथ चिंतन एवं मनन की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार का उन्मूलन करना हम सब का सर्वोपरि कर्तव्य होना चाहिए और इसके लिए हमारी दृष्टि आज की नव-युवा पीढी़, शिक्षाविदों और शिक्षार्थियों पर अधिक जाती है। वर्तमान यही लोग है जो भ्रष्टाचार रूपी दुराचार को मिटाने में सक्षम, समर्थ और सशक्त हैं और इसके साथ ही जनसामान्य के लिए आवश्यक है कि वे भ्रष्टाचार के विरोध में एक जबरदस्त लोक मत उत्पन्न करें ,इसके साथ ही न्यायिक व्यवस्था में सक्रियता के साथ-साथ लोकपाल व्यवस्था को लागू किया जाए और भ्रष्टाचारियों को कड़ा दण्ड देने की व्यवस्था होनी चाहिए। चुनाव प्रक्रिया में मूलभूत परिवर्तन किए जाएं जिससे उम्मीदवारों को अधिक राशि व्यय न करनी पड़े । सूचना के अधिकार को प्रभावी बनाए जाए। राजनीति में भ्रष्टाचार दूर करने का एकमात्र रास्ता जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन प्रमुख है। सरकारी प्रशासकों एवं मंत्री (नेताओं) जी लोगों के लिए एक निश्चित आचार संहिता का निर्माण सुनिश्चित होने के साथ-साथ इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। यहाँ एक बात हम स्पष्ट करना चाहेगें कि जब तक भ्रष्टाचार की समस्या को आम लोगों की मानसिकता से नहीं जोड़ेगें तब तक इस विशाल दानव से निजात नहीं पाई जा सकती हैं। अर्थात् वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार के इस मनोविज्ञान को एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में अपनाए जाने की आज शिद्दत के साथ आवश्यकता है।
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सम्पर्क-
वरिष्ठ प्रवक्ता,
हिन्दी विभाग
डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0 प्र0-285001

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