06 मार्च 2009

आफरीन खान की कविता - कहकहा

अपनी उदासियों को
कहकहों के शोर में
छुपा लेते हैं
दुनियाँ को ये गुमां
होता है के हम बहुत
खुश रहते हैं
पास आकर गर देखो
तो जानोगे इन कहकहों
के खोखलेपन में
न जाने कितनी
तन्हाईयाँ रोती हैं
अपने ख़ज़ाने में
बचे है बस ये आँसू
दुनियाँ की निगाहों से
इनको छुपाएं फिरते हैं
कोई आहट भी न
सुनने पाएं कभी
दर्द मे डूबी
मेरी आहों की इसलिए
जब भी श़ोर उठता है
दिल के दरियां में
हम एक ज़ोरदार
कहकहा लगा लेते हैं
उसकी गूँज में
पनीली आँखो की
उदासियों को छुपा
तन्हाईयों के कुछ पल
चुरा लेते हैं।

आफरीन खांन
शोध छात्रा,
राजनीति विज्ञान विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी-२२१००५

e-mail - khan_vns@yahoo।com

2 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर ...

vijay kumar sappatti ने कहा…

bahut hi behtar nazm ,
meri daad kabul karen ..

pls visit my poems
www.poemsofvijay.blogspot.com